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श्रीकृष्ण-कथा-- देवी का वचन
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उसके गर्भ के लक्षण प्रकट हुए और उसने एक पुत्री को जन्म दिया । पुत्री का नाम रखा गया ऋषिदत्ता । ऋपिदत्ता अनुक्रम से युवती हुई और उसने किसी चारण मुनि के पास श्राविका के वत ग्रहण कर लिए । उसकी माता और धात्री ( पालन-पोपण करने वाली ) की मृत्यु हो गई ।
एक वार राजा गिलायुध मृगया खेलते-खेलते उधर आ निकला और ऋषिदत्ता को देखकर कामपीडित हो गया। ऋपिदत्ता ने भी उसका अतिथि सत्कार किया । शिलायुध ने एकात में ले जाकर ऋषिदत्ता के साथ अनेक प्रकार से कामक्रीडा की । ऋपिदत्ता ने उस समय गका प्रगट की
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- राजन् | मैं सद्य स्नाता हूँ । यदि गर्भ रह गया तो क्या होगा राजा ने आश्वासन दिया
— मैं इक्ष्वाकु वशी श्रावस्ती नरेश गतायुध का पुत्र शिलायुध हूँ । यदि तुम्हारे पुत्र हो जाय तो मेरे पास आ जाना । मै उसे राजा बना दूँगा ।
इतने मे सेना आ पहुँची और शिलायुध अपनी नगरी की ओर चल दिया ।
ऋषिदत्ता की आगका सत्य हुई। उसने गर्भ धारण कर ही लिया था | योग्य समय पर उसने पुत्र प्रसव किया । प्रसव मे ही ऋपिदत्ता की मृत्यु हो गई और वह ज्वलनप्रभ नागेन्द्र की अग्रमहिपी वनी । वह अग्रमहिपी मैं ही हूँ |
पुत्री की मृत्यु हो जाने पर उसका पिता तापस अमोघरेता पुत्र को लेकर बहुत देर तक रोता रहा । मैने अपने अवधिज्ञान से पूर्व वृतान्त जान लिया । पुत्र मोह के कारण मैं मृगीरूप मे वहाँ आई और स्तनपान कराके उसे वडा किया । इसी कारण उस बालक का नाम एणीपुत्र पडा ।
कौशिक तापस भी मरकर दृष्टिविप सर्प बना और उसने पूर्व वैर के कारण तापस अमोघरेता को डस लिया । मैंने अपने पिता