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________________ जाणे त्रिनुवन एकठा मिलियां ॥ हाथी हलहलि या हयवर हणहणिया, नाद सुनीने सुरनर रण ऊपीया ॥४७॥ नीम नुवन थयुं ते जिहारें, नरत विमासे मनमांहे तिहारें ॥ एह अतुली बल महाबल पूरो, एह समो वम बीजो नहीं शूरो ॥४८॥ जाते दाहाडे देशवटो देशे, रिद्धि अ मारी जलाली लेशे॥नरतने मुंडे ढली तिहाशा इ, बोले बाहुवल सांनलो नाइ ॥४९॥ नुजा युद्ध कीजें हिवे नारी, अमे नमा बांह तुमारी॥ इम सुणीने नरत नूनाथ, वेगें पसारयो पोतानो हाथ ॥५०॥ बाहु बलवंतो नुजबल बांह, पट खंम पथवी जाले नचाह ।। कमल तणी परें बा हुवल वाले, तस नुज न चल्यो नरत नूपाले ॥ ॥५१॥ वारू हिया माहे मत राखो बाकी, चो थं मुष्टि युद्ध कीजे हिवे ताकी ॥ महोकम मू ठी तव नरतें उपामी, बाहुवल माथें दीधी पग डी ॥ ५२ ॥ मूठीने मारें शिथिल थयुं अंग, जरतना मनमां वाध्यो उबरंग ॥ बाहुबले मन साथै विचारी, मुठी उपाडी हियामां मारी॥५३॥ मूठीने मारें नरत लडथमीन, नमरी खाई ने
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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