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जैन महाभारत
इस प्रकार परस्पर लेख लिखकर नगर श्रेष्ठी के हाथ मे दे दिया। अब उसमें से एक तो उसी समय चल पड़ा । उसने देश की सीमा पर क्रय-विक्रय करते-करते कुछ द्रव्य एकत्रित कर लिया और वहां से समुद्र मार्ग से व्यापार करने लगा। इस प्रकार व्यापार करते हुए उसने बहुत सा धन व माल कमा अपने मित्रों को समाचार भेजा। दूसरे को भी उसके मित्रो ने बहुत प्रेरणा की कि तुम भी देशान्तरो में जाकर द्रव्योपार्जन करो किन्तु वह घर से बाहर भी न निकला। वह विचारने लगा कि वह लम्बे समय मे जितना द्रव्य कमा लेगा उतना तो मै निमिष मात्र मे कमा लू गा, चिन्ता की क्या बात है।
जब बारहवे वर्ष मे उसने दूसरे इभ्यपुत्र के आगमन का समाचार सुना तो दुःख पूर्वक घरसे बाहर निकल विचारने लगा कि 'मैने क्लेशो से दूर रहकर विषय लोलुपता मे बहुत सा समय व्यर्थ ही नष्ट कर दिया अब एक वर्ष मे कितना कमा लू गा। अतः अपमानित जीवन की अपेक्षा शरीर का त्याग करना ही श्रेयष्कर है।' यह निश्चय कर कहीं बाहर जाकर उसने साधुओ के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वह उत्कृष्ट तपश्चरण मे लग गया, अन्त मे अपने शरीर को कृश वना पूर्वकृत पापो की आलोचना कर नव मास सयम पर्याय पाल और समाधिमरण से देह त्याग कर सौधर्मकल्प मे देव दना।
एक दिन स्वर्गलोक में बैठे-बैठे उसका उपयोग अपने नगर में बैठे मित्रो की ओर चला गया, जहां वे आपस मे उसके बाहर जाकर द्रव्योपार्जन आदि की बाते कर रहे थे। उसी बीच मे एक ने कहा कि 'इतने अल्प समय मे वह दूसरे इभ्य पुत्र जितना धन थोड़े ही कमा सकेगा। उसे तो अन्त मे उस प्रतिज्ञानुसार दूसरे इभ्यपुत्र का मित्रों सहित दास बनना पड़ेगा।' इस पर उस देव ने अपने +अवधिज्ञान से अपने अपमान का कारण जान वेष परिवर्तन कर अपने देश की सीमा पर आ मित्रो को आने का समाचार भेज दिया । यह समाचार सुनकर मित्रों ने विचार किया कि इतने अल्प समय में कैसे महान् ऋद्धि प्राप्त कर सकता है ? अत पहले गुप्त रूप से समाचार देना चाहिये ।
+मन एव इन्द्रियो की विना सहायता से उत्पन्न होने वाला मर्यादित ज्ञान विशेप, जो कि देवो को जन्मजात ही होता है।