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द्रौपदी स्येवर
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मन के पूर्व ही प्रसन्नता का वातावरण नगर में व्याप्त हो चुका था फिर आगमन के पश्चात् की तो बात ही क्या थी।
एक दिन प्रतीक्षा का अवसान हुआ । सूचना मिली कि कल मध्याह्न काल में राज्य हृदय हार महाराज का नगर मे आगमन होगा। बस फिर क्या था, चल पडे सभी अपने महाराज के स्वागत में श्रीकृष्ण के दर्शन
और नववधू को निरखने को यथा समय सवारी आई। राजवाद्य ने मगल ध्वनि ध्वनित की, ललनाएँ मगल बंधाई गीत गाने लगीं। महाराज पाण्डु निमत्रित राजाओं तथा अपने राजकुमारों के साथ साक्षात् अमरावती के स्वामी इन्द्र की भॉति प्रतीत हो रहे थे। उनके पृष्ठ भाग की ओर चले आ रहे बहुमूल्य रथ पर अर्जुन और द्रौपदी स्थित थे। जो कामदेव और रति की प्रति मूर्ति ही भाषित हो रहे थे । जिसे देख कोई रोहिणी चद्रमा की उपमा देता तो कोई मणि-काञ्चन का सयोग कहता। नारीवृद तो राजकुमारी की रूप छटा को देखते अघाते ही न था । रह रह कर जनसमुदाय से 'महाराज अमर रहे' युग युग जीवें, युगल जोडी चिरजीवी हो जय हो' की ध्वनि आ रही थी। राजपथों की अट्टालिकाओं, भवनों पर खड़ी सुन्दरियाँ के नेत्र चकोर महाराज की अनुपम प्रतिभा तथा कुमार एव वधू की रूप राशि का पान कर हृदय तृप्त करने में सलग्न थे, उनके कमनीय सुकोमल कर उन पर पुष्प वरसा रहे थे, जिसे महाराज एवं राजकुमार मौन स्वीकृति से स्वीकार कर रहे थे।
इस प्रकार महाराज पाण्डु अपने नगरवासियों द्वारा किये गये अपूर्व स्वागत को स्वीकार करते दुर्ग के प्रागण में जा पहुचे । वहाँ रण में भयकर ज्वाला उगलने वाली पिशाल काय तोपों ने अपनी ही ध्वनि से उनका स्वागत किया । पश्चात् महाराज ने दर्ग में प्रवेश किया और वाह्योपस्थान में एक सभा का आयोजन किया। प्रायोजन में सर्वप्रथम महाराज पाण्डु ने साथ आये समुद्रविजय, वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि राजाओं का धन्यवाद प्रदर्शन किया कि 'इन्होंने मेरी तुच्छ विनति स्वीकार कर यहाँ तक आने का कष्ट किया है। पश्चात्
अपने मत्रियों, नगरवासियों का धन्यवाद करते हुए विवाहोपलक्ष में में उन्होंने कारावास से बन्दीजनों को मुक्त करने की तथा अन्य अपराधियों के अपराध क्षमा करने की आज्ञा दी और नागरिकों को तथा