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यदुवंश का उद्भव तथा विकाम
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२. मयमासयम-कुछ नयम कुछ अमयम अर्थात श्रावक (गृहस्थधर्म) व्रता का पालन करना ।।
३ बालतप-जानरहित तप करना ।
४. अकाम निर्जरा-अर्यात फल की इच्छा न रखते हुए शुभ काय करना । है राजकुमारी । ये देव गतिके कारण हैं । इस प्रकार की प्रवृति जिस प्राणी के जीवन मे हाती है वह क्रमश उसी आयु का बन्ध कर लेता है।
इसके पश्चात नाम कर्म है जिसके उदयभाव से जीव श्रादेय, अनादेय, सुस्वर, निर्माण, तीर्थकर आदि पद को प्राप्त करता है। यह फर्म चितेरे के महश होता है । जैसे चितेरा अच्छे-बुरे चित्र अकिन करता है उसी तरह यह नाम कर्म भी श्रात्मा को नानारूप में परिवर्तित कर देता है यह कर्म दो प्रकार का है, शुभ और अशुभ । जैम कोई व्यक्ति नि स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिए शुभ कार्य ही करता किन्तु अन्त में उसे अपयश ही प्राप्त होता है। जबकि दनरा व्यक्ति परहित में किञ्चितमात्र भी भाग नहीं लेता फिर भी समाज में उनकी प्रतिष्टा, यश प्रादि फैला रहता है । उस यश-अपयश का कारण शुभाशुभ नाम फर्म का उदय भाव हा समझना चाहिए । शुभ नाम कर्म फा उरार्जन चार प्रकार से होता है-- __यथा-काधिक प्रजुता-शारीरिक प्रवृति वक्रता रहित होने मे, भाषो की एजुता-भावों में कुटिलता न होने से अर्थात् भावना के शुद्ध रखने में । भाषा की जुता-वाणी में मधुरता, असदिग्धता अकर्कशता 'प्रादि गुण होने में 'प्रर्थान कुटिलता रहित भाषा बोलने से और योगों की अविषमता से मानसिक वाचिक प्रोर कायिक योगों की प्रविषमतापूर्वक प्रवृत्ति के होने से शुभ नाम कर्म का बन्ध होता है तथा इसके विपरीत पाया की प्रवृति में कुटिलता, भावों में चकता, भाषा में पटना तथा उपरोगः योगी म विषमता होने से प्रशुभ नाम कर्म का नाता है। शुभ फर्म के फलस्वरूप उवर्ग, गध रस, शब्द. पर्ण नपाट त्यान-यल-वीर्य-कर्म-पुस्पार्थ 'बादि की प्राप्ति होती है । तथा राम नाम पर्म रे 'निष्पर्ण, अनिष्ट गव नाटि प्राप्त होते हैं। सातवा गात्र नाम कम है जिसके प्रभाव ने जीव उच्च प्रथया नीच पुनमे पान होला ।यापम यु भकार पी तरह है जैसे क. भकार छोटे