________________
२८
जैन महाभारत
नारकीय आयु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु । सोलह प्रकार से इन आयुष्यो का बन्ध होता है ।
१ महारम्भ-सदैव षट्कायिक जीवों की हिंसा मे ही सलग्न रहना।
२. महापरिग्रह-अत्यन्त लालची बन कर अमित द्रव्यों का सग्रह तथा उस पर आसक्ति रखना।
३. कुणमाहार-मदिरा-मॉस-अण्डा आदि अशुद्ध अहार करना।
४. पॉच इन्द्रिय वाले जीवो-मनुष्य, पक्षी-पशु आदि को मारना । इस प्रवृति वाला जीव नारकीय जीवन प्राप्त करता है।
१. माया अर्थात् कपट करना और उस कपट को छुपाने के लिए असत्य आदि अवगुणों को आश्रय लेकर अधिक कपट करना। ३. व्यापारादि मे परिमाण से कम तोलना कम मापना। ४ असत्य बोलना तथा अपना दोष दूसरों पर लादना । इन कार्यो' से प्राणी पशुयोनि के साथ सम्बन्ध जोड़ता है।
१. प्रकृति से भद्र होना अर्थात् स्वभावत दूसरो से सरलता का व्यवहार करना।
२. प्रकृति सेविनीत होना-अर्थात् स्वभाव से ही प्रत्येक से नम्रता का व्यवहार करना।
३. सानुक्रोश-दूसरों के प्रति हृदय मे अनुकम्पा, करुणा आदि के भाव रखना।
४ अमत्सरता-इर्ष्या आदि न करने से । इस प्रकार आचरण करने वाला जीव मनुष्य आयु का वन्ध करता है अर्थात् मनुष्यत्व प्राप्त करता है। ___ उपरोक्त आयु भी दो प्रकार की है, एक स्वअल्प और दूसरी दीर्घ । हिंसा से, असत्य से और घर आये अतिथि को उसकी साधना के प्रतिकूल वस्तु देने से दुखमयी दीर्घ आयु का बन्ध होता है। और अहिंसा, सत्य आदि के आचरण से तथा शुभ भावों से श्रमण, ब्राह्मण और सयति को उनकी वृत्यानुसार दान देने से सुखमयी दीर्घायुष्य का बन्ध होता है।
१ सराग सयन का पालन-देव, गुरु, धर्म और सिद्धान्त के प्रति राग रखते हुए संयम का पालन करना।