________________
५५८
जैन महाभारत
"मत्री जी | मनोवेगो के प्रवल प्रवाह में मानव भटक जाता है। उस समय उससे ज्ञान चिन्तन आदि कोसो दूर चला जाता है । मात्र उसको उस पूर्ति की ही चुन रहती है, राजा ने मन्त्री की बात को काटते हुये कहा-और चिन्ता मे मन तो अशान्त रहता ही है किन्तु वह शारीरिक शक्ति का भी ह्रास करती है।"
"तो आपका क्या विचार है ?" __ "विचार तो मै पहल ही प्रगट कर चुका हू कि द्रापढी विवाह योग्य हो चुकी है और उसका उपाय सोचना चाहिये।" राजा ने कहा।
"महाराज | द्रोपदी का विवाह किस पद्धति से करने का आपने निश्चय किया है ?"
"स्वयवर पद्धति से, क्योकि इसमे कन्या को आत्म निर्णय का अवसर मिलता है।"
जो आज्ञा, हम स्वयवर की सफलता के लिये पूर्ण प्रयत्न करेंगे।"
इस प्रकार महाराज द्र पद ने मन्त्रियो के साथ स्वयवर का निश्चय कर अन्तःपुर को प्रस्थान किया । वहाँ जाकर उन्होने महारानी चूलनी के साथ द्रोपदी के पाणिग्रहण की चर्चा की । रानी स्वय बड़ी बुद्धिमती थी और वह पहले से ही चाहती थी कि द्रोपदी के विवाह की बात चले । अतः उसे राजा निश्चय पसन्द आया और उसके लिये सम्मति दे दी।
इस प्रकार महाराज द्र पद ने अपनी रानी तथा मन्त्रियो के साथ परामर्श कर द्रोपदी के स्वयवर की तैयारी आरम्भ करदी । सर्वप्रथम राजा महाराजाओं के निमन्त्रण के लिये दूतो को भेजा गया जो देश के प्रत्येक भाग मे जाकर स्वयवर की निश्चित तिथि की सूचना दे सके। उनमे से पहला दूत सौराष्ट्र देश मे अवस्थित द्वारका नगरी पहुंचा । श्रीकृष्ण का राज्य दरबार लगा हुवा था। महाराज समुद्र विजय, वसुदेव आदि दशो दशाई तथा बलराम प्रद्युम्न, शाम्ब
आदि बैठे हुए सभी अपने अपने स्थानों को अलंकृत कर रहे थे। द्वारपाल ने आकर निवेदन किया महाराज | पांचाल देशाधिपति राजा द्र पद का दूत आया है, क्या आज्ञा है। श्रीकृष्ण ने उसे अन्दर आने