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द्रोण का बदला की थी ?" द्रोणाचार्य ने उत्तेजित होकर प्रश्न किए। जो कि द्र.पद के दिल में वाणों की भांति चुभते चले गए। ____ मैं कह जो चुका कि इस समय आप कुछ भी कह सकते है आप चाहे जो याद दिला सकते हैं। फिर भी जब आप बार बार पूछ रहे है तो मैं कहता हूं कि मुझे सब कुछ याद है।" द्र पद शांति से बाला । .. "अच्छा तो तुम ने उस समय मुझे मित्र नहीं माना था, पर मैं तुम्हें अपना मित्र म्वीकार करता हूँ और पॉचाल देश का उत्तरी भाग तुम्हे देता हू और दक्षिणी भाग स्वय लेकर तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी करता हूँ। बोलो स्वीकार है ? द्रोणाचार्य ने पूछा।
द्रुपद ने सिर मुकाये हुए कहा-ठीक है, अस्वीकार कैसे किया जा सकता है।'
उसी समय द्रोणाचार्य ने अर्जुन को आज्ञा दी कि द्र पद को मुक्त कर दो । अर्जुन ने उसे छोड़ दिया। द्रोणाचार्य ने कहा-आओ द्र पद बीते हुए को भूल जायें और फिर मित्रों के समान रहे । आओ मेरे मित्र मुझ से गले मिलो । द्र.पद आगे बढ़ा। दोनों गले मिले । परन्तु दो गले तो मिले, दा हृदय नहीं । उस समय द्र पद के हृदय मे अपमान की ज्वाला धधक रही थी। वह खून के घूट पी रहा था और उस क्रोध की धधकती हुई ज्वाला को दबाए हुए अपने राज्य को लौट गया।
द्र पद के चले जाने के पश्चात् धर्मराज (युधिष्ठिर) ने कहा-'गुरु जी । मुझे लगता है कि यह सब कुछ उचित नहीं हुआ।'
'क्यों ?' 'इस लिए कि आप ने व्यर्थ ही द्र पद से वैर बढ़ाया।'
'नहीं मैं उसे मित्र बना कर गले मिला । पिछली बातो पर पानी फेर दिया और इस काण्ड का पटाक्षेप कर डाला ।' द्रोणाचार्य बोले ।
युधिष्ठिर बोले-नहीं गुरुदेव ! द्र पद आप से गले तो मिला, पर उसका हृदय आप से नहीं मिला। उसके हृदय में तो अपमान की ज्वाला धधक रही थी।
'यदि ऐसा ही है तो भी मुझे अब उस से कोई भय नहीं है क्योंकि मैंने उसके राज्य का श्रेष्ठ भाग स्थय ले लिया है और उसे निकृष्ट भाग दिया है । द्रोणाचार्य ने कहा ।