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प्रद्युम्न कुमार तथा वैदर्भी
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वैदर्भी के मन में प्रद्युम्न कुमार के प्रति प्रेम अकुरित हो रहा था । बल्कि उसने निश्चय कर लिया कि वह प्रद्युम्न कुमार को ही पति रूप में स्वीकार करेगी।
रुक्म ने अन्त में कहा - ' प्रद्युम्न तो हमारा भानजा है । तुम उस से बड़े प्रसन्न हो । पर यहाँ भी तुम्हे वैसा ही आराम मिलेगा ।' और दोनों को बहुत सा इनाम देकर विदा किया |
रण का हाथी । इस
दूसरे दिन रुक्म की हस्तिशाला से एक मदोन्मत्त हाथी निकल भागा । उस ने भयंकर रूप धारण कर लिया । आपणों को नष्ट करता, घरों को उजाडता, लोगों को मारता हुआ वह घूमने लगा, सारे नगर में त्राहि त्राहि मच गई। राज कर्मचारियों ने उसे काबू में करने के बहुत प्रयत्न किए पर वह काबू में न आया था वह लिए उस की हत्या भी नहीं की जा सकती थी अन्त मे रुक्म ने घोषणा की कि जो व्यक्ति इस हाथी को पकड कर लायेगा उसे मुह मागा इनाम मिलेगा। कितने ही लोग फिर ता उसे पकड़ने का प्रयत्न करने लगे पर वह किसी के काबू में न आया । अन्त में वही दोनो डोम चले और डोम वेषधारी प्रद्युम्न कुमार ने अपनी गायन विद्या से हाथी को वश में कर लिया। उसके मस्तक पर सवार होकर प्रद्युम्नकुमार डोम के वेष में महल पहुँचा । रुक्म प्रसन्न हुआ । हाथी को बांधने का आदेश दिया, जब प्रद्युम्न कुमार ने हाथी को हस्ति शाला में बाध दिया और वह इनाम लेने पहुँचा तो
उसकी वीरता से बहुत
रुक्म ने उस की बडी प्रशसा की अन्त में बोला - डोम ' तुम वीर भी हो, अच्छा जो चाहे मांग लो हम वही तुम्हें पुरस्कार स्वरूप प्रदान करेंगे।"
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डोम बोला -- ' महाराज | मुझे आप की धन दौलत, नहीं चाहिए, हाथी घोडे नहीं चाहिऐं, जागीर नहीं चाहिए। हम तो डोम हैं, मागना खाना हमारा पेशा है, सेठ मैं बनना नहीं चाहता, जो मिल रहा है, उसी में प्रसन्न हू । हा हमें रोटी सेकने वाली की जरूरत है । बस आप की दया हो तो हमारा यही काम हो जाये । आप अपनी कन्या को हमें दे दीजिए ।'
रुक्म क्रोध से पागल हो गया, उस ने गरज कर कहा - मूर्ख डोम