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शाम्ब कुमार
५२६ दिया जिससे शाम्ब कुमार की इच्छा पूर्ति का मार्ग निकल आया।
+एक दिन सुभानु राज उपवन में सैर करने के हेतु गया। साथ
+यह घटना इस प्रकार भी कही जाती है कि-शाम्ब के चले जाने पर प्रद्य म्न अकेले रह गए, अब उनका और कोई साथी ऐमा न रह गया जो उन का पूर्ण रूप से साय देवे | भीर कुमार से उसकी पटती न थी। अत कभी २ परस्पर मुठभेड भी हो जाती । एक दिन प्रद्य म्न ने भीर कुमार को पीट डाला इस पर सत्यभामा कहने लगी प्रद्युम्न | तू भी शाम्ब की तरह नटखट होने लग गया है । उसके चले जाने से नगरवासियो का प्राधा दुख तो दूर हो गया है, और जब तू भी चला जायेगा तो सारा दुख दूर हो जायेगा।" माता मैं कहाँ जाऊ ? प्रद्युम्न ने पूछा । श्मशान में जा और कहा जायेगा? मत्यभामा ने खिमते हुए कहा।
___ "अच्छा माता यह भी बतादो कि वहा मे में वापिस कव पाऊ ।" जब में स्वय शाम्ब को हाथ पकडकर यहा ले पाऊ तब चले पाना । मत्यभामा ने कुटिलता पूर्ण उत्तर दिया । 'पन्छा' कह कर कुमार वहा से जाकर श्मशान में रहने लगा। घूमता हुआ निर्वासित शाम्ब भी उधर प्रा पहुचा । अव वे दोनो श्मशान में चौकीदार की भाति रहने लगे । अपनी बुद्धिमत्ता से कर भी वसूल करने लगे। अधिकार भी प्रयोग करते रहे। इसी भांति जीवन यापन कर रहे थे कि एक दिन शाम्ब को राज्य में पुनर्वासित करने की युक्ति प्रद्युम्न को सूझी । क्योकि उसके पास गौरी अोर प्रज्ञप्ति नामक दो विद्याए थी जो उसे परोक्ष वातावरण को प्रत्यक्ष रूप में बताया करती थी।
कारण यह वना कि इन्ही दिनो सत्यभामा ने अपने पुत्र भीरु के विवाह के लिए निन्यानवे कन्याए खोज रक्खी थी किन्तु उसकी हार्दिक इच्छा थी कि उस के पुत्र का विवाह सौ राजकुमारियो के साथ हो।
इधर प्रद्युम्न को उसकी विद्या से यह सारी बातें मालूम हो गयी । अत उस ने एक पडयन्त्र रचा। स्वय एक प्रदेश का राजा वना, जितशत्रु नाम रक्खा, और शाम्ब को अपनी पुत्री बनाया । एक दिन भीरु की धाय माता ने उस लडकी को अपनी सहेलियो के साथ उद्यान में खेलते हुए देखा । वह रूप में साक्षात् रति समान थी। उसने शीघ्र आकर सत्यभामा को बताया। सत्यभामा ने भीरुकुमार के लिए याचना की। इस पर जितशत्रु ने कहला भेजा कि- "यदि सत्यभामा स्वय मेरी कन्या का हाथ पकड कर द्वारिका में प्रवेश करे, विवाह के समय भीर के हाथमें हाथ देते समय इसका हाथ ऊपर रखा जाय,तो में अपनी पुत्री का विवाह करू गा अन्यथा नही। सत्यभामा ने उसकी सारी ते सहर्ष स्वीकार कर ली और यथा समय जितशत्रु के शिविर में गयी जो कि द्वारिका से थोडी ही दूरि