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________________ ४६६ प्रद्युम्न कुमार मद्दल इस दशा को देखकर चिन्तित हो गया । नृप को पता चला तो उसने तुरन्त वैद्यराज बुलाए । वैद्यों ने नाड़ी देखी। पर वे न समझ पाए कि रानी को रोग क्या है। रोग की पहचान ही न हो तो निदान क्या हो । वैद्य आते, देखते और निराश होकर लौट जाते। इस दशा को देखकर नृप बहुत घत्रराया । रानी बार बार प्रद्युम्न कुमार को पुकारती । नृप अधीर हो गया, उसने कुमार को बुलाकर कहा - " कुमार तुम आनन्द पूर्वक इधर उधर घूम रहे हो । उधर तुम्हारी माँ बीमार है, जिसके रोग को पहचानने म वैद्यगण भी विफल हो गए हैं । बडी चिन्ताजनक दशा है उसकी । वह बार बार तुम्हारा नाम लेकर पुकारती है ।” प्रद्युम्न कुमार ने विनय पूर्वक कहा - " पिताजी । मुझे क्षमा करना । मुझे माता जी बीमारी की सूचना ही नहीं मिली थी । वरना अपनी तीर्थ समान माता के रोगग्रस्ता होने पर भला मैं न जाता । यह समाचार सुनकर मेरे हृदय पर एक भयकर आघात लगा है ।" कुमार तुरन्त माता के महल की ओर चल दिया, वह मन ही मन मन पश्चाताप करता जाता कि माता रुग्ण अवस्था में पडी है और अब तक मैं दर्शनों के लिए भी नहीं गया । क्या सोचती होंगी यह । कितनी आत्मग्लानि होगी मुझे उनके सामने जाते ही । कितना बडा अनर्थ हो गया मुझ से ? कुमार ने ज्यों ही रानी के शयन कक्ष में पग रखा दूर से ही पुकारा - " मा | क्या हो गया तुम्हे ।" जाकर चरणों की ओर खड़ा होकर चरण स्पर्श किए और अवरुद्ध कण्ठ से कहा- माता जी ! मुझे क्षमा करना, आप की यह दशा हो गई रोग से और मैं दर्शन भी न कर सका। कहीं आपको मेरी ओर से कोई भ्रम तो नहीं हुआ । माता जी | मुझे क्षमा करना, किसी ने मुझे बताया ही नहीं कि आप बीमार हैं, वरना मैं आधी रात भी भागा आता । आपको यह हुआ क्या है ? क्या रोग है ?" दासी वोली --- कुमार वैद्यगण आये थे, पर किसी की समझ में रोग ही नहीं आता ।" "ओह । तो क्या कोई भयकर रोग है ?" निकल गया । कुमार के मुख से हठात्
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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