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जैन महाभारत जिन पर बैठे हुए पक्षी अपने दुख-सुख की बात सोच रहे थे। कुछ बैठे चकचहट की ध्वनि कर रहे थे, जिस से वह सघन वन गूज रहा था। वहीं से कभी २ मानव ध्वनि कानों में आ पडती । जिससे कुमार ने उसी दुर्जय वन में प्रवेश किया । कुमार ने वहाँ एक नवयुवती पद्मशिला पर पद्मासन लगाए हुए बैठी देखी । नवयुवती हाथ में स्फटिक रत्न की माला लिए जाप कर रही थी। श्वेत साटिका, गौर वर्ण, दीर्घ काले रेशम से केश, नितम्बों तक छिटके हुए, चन्द्रमुखी, मृगनयनी, सुकोमल प्रस्फुटित पुष्प की नाई बैठी युवती साक्षात् देवांगना की भांति प्रतीत होती।
प्रद्युम्न कुमार देखते ही उस पर मोहित हो गया, वह सोचने लगा, अनुपम सुन्दरी वनकन्या प्रतीत होती है। इतने सौन्दर्य से परिपूर्ण यह सौम्य मूर्ति जिसके अंक में होगी, कितना गर्व होगा उसे अपने भाग्य पर । वह कभी उसके नेत्रों को देखता, कभी उसके तेजवान ललाट पर दृष्टि डालता, कभी गर्वित वक्षस्थल पर नजरें गड़ा देता । और मुग्ध होकर एक एक अग की मन ही मन प्रशसा करने लगा।
उसी समय एक पुरुष आ निकला । कुमार का आदर पूर्वक अभिवादन किया । कुमार जैसे स्वप्न लोक से जागृत हुए और पूछ बैठे"भद्र | इस सुकुमारी के सम्बन्ध में आप मुझे कुछ बता सकते हैं ?"
"जी हाँ, यह वायुनामक विद्याधर और उसकी सरस्वती रानी की सन्तान है । नाम है इसका रति । बडी ही पुण्यवती, गुणवती और शुद्ध विचारों की कन्या है।" उस पुरुष ने उत्तर दिया।
"इन्द्राणी को भी मात करने वाली इस युवती के हृदय में इतनी कम आयु में ही जप तथा तप के प्रति कैसे अनुराग हुआ? क्या इस के पीछे कोई रहस्य है।" कुमार पूछने लगा।
उस पुरुष ने उत्तर दिया- "भद्र । इसके पिता श्री ने ज्योतिषियों से पूछा था कि रति किस सौभाग्यशाली की सहधार्मिणी बनेगी। ज्योतिपियो ने बताया कि इस वन मे आकर प्रद्युम्न कुमार नामक पुण्यवान एवं वीर युवक इसे अपनी जीवन संगिनी बनायेगा। ज्योतिषियों ने उस कुमार के जो लक्षण बताए थे, वे सभी आप में विद्यमान हैं।' उसी की प्रतीक्षा में कुमारी बैठी है । प्रद्युम्न कुमार को