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जैन महाभारत wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
__ जब शिशुपाल को इस बात का पता चला तो उसे हर्ष ही हुआ। उस ने रुक्म से कहा---- "रुक्मणि को देव पूजन की प्राज्ञा क्यों नहीं दे देते । इस में तुम्हे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।"
"तुम्हारी स्वीकति मिल गई, बस यही मैं चाहता था। क्योकि मुझे डर है कि कहीं कुछ गड़बड़ हो जाय तो तुम मुझे दोष न दे दो। देखो मैंने सारे नगर को शिविर बना रखा है।" रुक्म बोला।
शिशुपाल को वडा हर्ष हुआ यह जान कर कि रुक्म उसके लिए इतना कठोर व्यवहार कर रहा है। उसे रुक्म के अपने प्रति स्नेह का विश्वास हो गया।
रुक्म ने शिशपाल की सहमति से रुक्मणि को देव पूजन की आज्ञा दे दी । और कितनी ही सखियां तथा धाय माता उसके साथ चल दीं । सखियां गीत गाती हुई जा रही थीं, रुक्मणि के हाथ मे पूजा का थाल था। यह सभी कुछ यह विश्वास दिलाने के लिए किया गया था कि वास्तव में सम्मणि देव पूजन को ही जा रही है । पर रुक्मणि जिस देव के दर्शन को जा रही थी, यह देव द्वारिका नगरी से उसे लेने के लिए आया था। उसके साथ बलराम भी थे । और (नगर से दूर उनकी सेना भी तैयार खड़ी थी जो समस्त प्रकार शस्त्र अस्त्रों से लैस थी।) श्री कृष्ण रुक्मणि की प्रतिक्षा में थे, वे पहले ही उपवन मे पहुंच गए थे।
रुक्म ने देव पूजन के लिए जाती हुई रुक्मणि के पीछे सेना भी लगा दी थी ताकि उपवन में किसी प्रकार की गड़बड़ न हो जाय । परन्तु नगर से निकल कर उपवन से कुछ दूर पर ही धात्री ने सैनिको को सम्बोधित करके कहा--"तुम पीछे पीछे क्यों आ रहे हो । रुक्मणि राज कन्या है कैदी नहीं है । वह देव पूजन करने जा 1 रही है, सेना देव पूजन की श्रेष्ठता को भंग करती है। देवता रुष्ट हो . जायेगे । अतः तुम यहीं रुको।" सेना रुक गई।
फिर आगे जाकर उन्होंने सखियों से कहा-"अच्छा अब हम लोग भी यहीं रुक जाएं ताकि राजकन्या एकान्त में पूजन कर सके। न जाने बेचारी देवता से क्या क्या मांगे, हमारे सामने मुख खोलते लज्जा अनुभव करेगी।"