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हरिवंश की उत्पत्ति
wwwwwwwwwwwwwwwwww हो क्योंकि अवधिाज्ञानी पुरुष भी तो मर्यादित रूप में देखते तो है, इसी प्रकार सर्वज प्रभु तो सर्वत्र सब कुछ देखता ही है, फिर भला ऐसा कौनसा स्थान हो सकता है जहाँ लेजाकर मैं इस कबूतर को मार डालूँ । इसका अर्थ यह है कि गुरु ने मुझे इसे मारने की आजा ही नहीं दी, बम यही सोचकर नारद कबूतर को जीवित ही अपने हाथो मे लिये हुए लोट आये और गुरु के पूछने पर बोले कि "गुरुदेव । मुझे तो कोई ऐसा स्थान नहीं मिला जहाँ जाकर मैं इसे मार सकूँ । इसलिए मैं इसे जीवित ही वापस ले पाया है।'' नारद की इस बुद्धिमता को देख गुरु अत्यन्त प्रसन्न हुए और मन ही मन सोचने लगे कि वास्तव में यह बालक ही मुक्त होने का अधिकारी है।
इसी समय एक दिन गुरु किसी कारण से राजा वसु पर अत्यन्त क्रुद्ध हो उसे ताडन करना चाहते थे कि वह भागकर गुरुमाता की शरण में चला गया, गुरु माता ने उस समय गुरु के कोप से उसे बचा लिया। तव वसु ने वडे विनय भाव से प्रथिना की कि “माता मैं आज के उपकार के फलस्वरुप समय आने पर आपकी अवश्य किसी आज्ञा का पालन कर आपके ऋण से उऋण होऊगा।"
कुछ समय पश्चात् गुरु के स्वर्ग सिधार जाने पर पर्वत और नारद में इस विषय को लेकर शास्त्रार्थ होगया कि अजेयेष्टव्यम्' इस वेद वाक्य द्वारा सज शब्द से क्या अभिप्रेत है । पर्वत का कथन था कि यहाँ अज का अर्थ 'बकरा' है इसलिए इस वाक्य के द्वारा वेद भगवान् आदेश देते हैं कि यज्ञ में बकरे की बलि देनी चाहिए किन्तु नारद का कथन था कि यहॉ प्रज शब्द का अर्थ बकरा नहीं प्रत्युत तीन साल के पुराने जी है। क्योकि तिसलिए जी में ऊगने की क्षमता नहीं रहती इसलिए 'न जायते इति रज.' इस व्युपत्ति के अनुसार अज शब्द का अर्थ पुराने जी ही हैं। इस पर भी पर्वत नहीं माना तो नारदन और समझाया कि उक्त वेद वाक्य में यदि 'ग्रज का अर्थ बकरा होता तो "जन चष्टव्यम्" ऐसा एक वचन का प्रयोग करते । बहुवचन का प्रयोग ही यह स्पष्ट दिखाता है कि यहाँ अज का 'प्रर्थ बकरा कदापि नहीं हो सकता जी ही है । इस प्रकार दोनों का वादविवाद बहुत बढ गया। अन्त में यह निणर्य हुआ कि इन शास्त्रार्थ में किसी को निर्णायक बना दिया जाय और वह जो पसला दे उसे दानो स्वीकार करले । इस पर राजा वसु को निर्णायक