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जैन महाभारत
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"मै उनका दूत हूं, उनके आधीन हूं । मेरा कर्तव्य है कि उचित, अनुचित का भेद समझे बिना ही उनकी आज्ञा का पालन करू | अतएव मेरी तो यही सम्मति है कि आप इन्हें मेरे हवाले कर दें । और जैसे इनके छ भ्राताओं की मृत्यु पर आपने सतोष कर लिया, इसी तरह इन दो के लिए भी आप सतोष करें । इसी मे खैर है । सांप मुंह मे उगली देना, पर्वत को सिर से चूर्ण करना, सोये हुए सिंह को जगाना, प्रज्वलित अग्नि को पावों से बुझाना और अपने से अधिक बलिष्ट से विरोध करना उचित नहीं है। आप स्वय ही सोचे कि बकरी का सिंह से द्वेष करना कैसे उचित ठहराया जा सकता है ?" सोम भूप ने जरासघ का भय दर्शाते हुए कहा ।
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"आप दूत है मेरे परामर्श दाता नहीं ।" आवेश में आकर समुद्रविजय बोले ।
“तो फिर मगधेश्वर का अन्तिम सन्देश भी सुन लीजिए कि भलाई इसी मे है आप राम और कृष्ण को मुझे सौप दे । वरना अपने सिंहासन की रक्षा का प्रबन्ध करें | अपने प्राणों की खैर मनाये ।" सौम भूप ने धमकी पूर्ण लहजे में कहा |
इतनी देर से कृष्ण सौम भूप की बातें सुन सुन कर दांत पीस रहे थे, पर वे कुछ बोल नहीं रहे थे क्योंकि समुद्रविजय और सोम के बीच में बोलना वे नहीं चाहते थे । पर जब उसके मुख से धमकी सुनी तो उनसे न रहा गया वे बोल ही पड़े - "इन गीदड़ भबकियों, बन्दर घुड़कियों से हम घबराने वाले नहीं है । उस अहंकारी से आप जाकर कह दीजिए कि जो उसके शेर कस की हत्या कर सकते है वे इतने बलिष्ठ हैं कि जरासंध के सिर की खाज भी मिटा सकते हैं । वह होश की बात करे । कहीं ऐसा न हो कि हमें उसकी मिट्टी भी ठिकाने लगानी पड़े।"
सोम को यह अपना और जरासंध का घोर अपमान प्रतीत हुआ । वह क्रोध में भर कर बोला- "कुलांगार | क्यों अपने कुल का नाश करवा रहा है । जरासंध की तलवार से कभी वास्ता नहीं पड़ा । यदि कभी उसके हाथ देख लिए तो बोलना करना भूल जाओगे ।"