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जैन महाभारत
सती कुन्ती के शोक से सूर्य भी गया डूब । दुर्योधन की चाह पर मानो पड़ गई धूल |
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देख सका न सूर्य सती का शोक दुष्ट की खोट | पीड़ित हो मुख लाल भया छिपा क्षितिज की ओट |
सूर्य सचमुच डूब रहा था । द्रोणाचार्य पुनः बोले - " अब आप लोग अपने अपने घर जायें, सूर्यास्त के उपरान्त अब कोई कार्य न हो सकेगा, मल्ल युद्ध भी न होगा ।"
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द्रोणाचार्य का कथन सुनकर सब लोग उठ कर चलने लगे। दुर्योधन मन ही मन बुरी तरह खीझ रहा था, उस की इच्छाएं, आकांक्षाएं, अभिलाषाएं हृदय की श्मशान में तड़प रही थीं। वह कभी द्रोणाचार्य को, कभी कृपाचार्य को और कभी सूर्य को कोसता | क्या सूर्य दुष्ट को भी डूबने को यही समय रहा था, उसे भी अभी डूबने की सूझी ? दुर्योधन सोचता रहा और कुढ़ता रहा ।
इधर क भी द्रोणाचार्य आदि पर बुरी तरह कुढ़ रहा था । यहाँ तक कि उसने जाते समय उन्हें प्रणाम भी नहीं किया। कौरव भी टेढ़ेटेढ़े हो रहे | परन्तु पाण्डवों ने पहले ही की भांति उनका आदर सत्कार किया । कर्ण सोच रहा था आचार्य ने आज बनी बनाई बाजी बिगाड़ दी। सूर्य अस्त हो गया था तो क्या बात थी प्रकाश भी तो हो सकता था । हमें तो किसी भी प्रकाश की ही साक्षी पर्याप्त थी । पर आचार्य तो अर्जुन को बचाना चाहते थे सो बचा लिया । द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, गुरु भाई भी हैं, वरना ऐसा बदला लेता कि वह भी याद करते । "
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परीक्षा समाप्त हो गई। भीष्म जी ने द्रोणाचार्य को राजसभा में बुलाया । उनका उचित आदर सत्कार किया और यथायोग्य भेंट देकर आभार माना ।