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________________ शिष्य परीक्षा पूर्ण सही, परन्तु उस से भी कहीं बढ़कर योद्धा व कलाकार विद्यमान है। क्या ही अच्छा हो कि मेरा भाई कर्ण को परास्त कर दे। पर यह मेरी शुभ कामनाओं मात्र से ही तो नहीं होने वाला । अर्जुन के सामने आकर एक बार अपने को सच्ची परीक्षा की कसौटी पर चढ़ाना चाहिए। यह कर्ण वही है जिसकी वीरता को देखकर कितनों ने ही इसकी अवहेलना की, किन्तु सूर्य की ओर से आंखें मूद लेन से सूर्य का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। कर्ण ने परीक्षा स्थल पर आकर जो चुनौती दी वह यू'ही नहीं है । मुह छिपाने से काम न चलेगा, अपने भ्रम के निवारण का अर्जुन को इससे अच्छा अवसर मिलने से रहा।" ___ कर्ण ने दुर्योधन के शब्द शब्द में भरी भावना को भलि प्रकार समझ लिया। वह जान गया कि यहाँ दुर्योधन उसका हर प्रकार से सहयोग देने वाला उपस्थित है। उसके द्वारा की गई प्रशसा से वह और भी उत्साहित हो गया, बल्कि यू समझिए कि अभिमान के मद से भर गया और छाती फुला कर कहने लगा-"यदि यहां उपस्थित तो मैं सामने खड़ा हूँ। मैदान में आये और दो दो हाथ कर ले।" तदुपरान्त उसने चारों ओर दृष्टि डाली और फिर बोला -यदि अब भी किसी का ख्याल है कि अर्जुन बहुत बड़ा वीर है तो मैं सामने खड़ा हूँ। अर्जुन शस्त्र रख कर श्रा जावे और मुझ से मल्ल-युद्ध करें। कलइ तनिक देर में ही खुल जावेगी। अभी तक अर्जुन गुरुदेव की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे परन्तु जब बारम्बार कर्ण ने चुनौती दी तो उनसे न रहा गया, शस्त्र रख दिए और कर्ण के सामने आ गए। चारों ओर आश्चर्य और भय का साम्राज्य छा गया। दुर्योधन प्रसन्न हो गया और मन ही मन में कर्ण की सफलता की कामना करने लगा। __ दूसरी ओर कुन्ती ने जब कर्ण को ध्यान पूर्वक देखा तो उसके कानों में पडे कुण्डल देखकर उसे शका हुई-अरे! यह तो मेरा ही पुत्र है जिसे पेटी में बन्द करके नदी में बहा दिया था हाँ ठीक है, उसका भी हम ने कर्ण ही तो नाम रखा था कर्ण का नाम सुन कर मुझे तो पहले ही खटका था, जिसने उसे निकाला होगा, परचे पर
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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