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जैन महाभारत
में राजकुमारों की परीक्षा हो । इससे दो लाभ होंगे, एक तो आप राजकुमारों की योग्यता प्रांक लेगे दूसरे बहुत से दुष्ट राजकुमारों की शिक्षा और शक्ति को देखकर ही दब जायेंगे।"
भीष्म जी कुछ सोचने लगे, सोचने लगे वे परस्पर सहयोग की शर्त पर । किन्तु परम प्रतापी भीष्म को समझते देरि न लगी कि अवश्य ही राजकुमारो में कोई बात ऐसी है, जिसे देखकर दोणाचार्य को सन्देह है कि यह लोग परस्पर सहयोग से भी रह पायेगे। जो भी हो, भविष्य बताएगा कि शंका समूल है अथवा निर्मूल । परीक्षा की बातें उन्हें पसन्द आई और उन्होंने कहा-आचार्य जी ! आप का विचार यथार्थ है। परीक्षा का विचार मेरे मन में भी उठा था, परन्तु यह सोचकर रह गया था कि जब तक आचार्य जी स्वयं परीक्षा की बात न उठायें तब तक शिक्षा के सम्बन्ध में मेरा कुछ भी कहना आपके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप होगा और होगी यह अनधिकार चेष्टा । आप स्वय दक्ष हैं
और इस सम्बन्ध में सर्व प्रकार से कुशल है। आपने अवसर देखकर ही बात कही है अत. जब चाहे राजकुमारों की परीक्षा लीजिये।"
दोणाचार्य-"कौरवों पाण्डवों की शिक्षा के पूर्ण हो जाने पर तुरन्त ही मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हुए अत मैंने सोचा कि अब समय व्यर्थ नष्ट करना उचित नहीं है । राजकुमारों ने जो शिक्षा ग्रहण की है उसकी परीक्षा में स्वयं तो कई बार ले चुका हूं। परन्तु यह भी आवश्यक है कि राजकुमार अपनी विद्याओ का प्रदर्शन करके जनता पर प्रभाव डालें और आप भी अपने नौनिहालों की योग्यता को परख लें। इसके अतिरिक्त इस प्रदर्शन से मेरे द्वारा दी गई शिक्षा को जब चार सभ्य और सुशिक्षित व्यक्ति देखेंगे तो मेरी शिक्षा की वास्तविकता का भी पता चल जायेगा। मैं चाहता हूँ कि शीघ्र ही परीक्षा मण्डप का निर्माण हो।"
द्रोणाचार्य की बात भीष्म जी ने स्वीकार कर ली और परीक्षा मण्डप की तेयारी के लिए राज कर्मचारियों को दोणाचार्य के साथ कर दिया। दोणाचार्य ने स्वयं ही परीक्षा स्थल का निश्चय किया और भूमि परिष्कृत करके अपनी देख रेख में मण्डप का निर्माण कराया। उस मण्डप मे कुछ मचान बंधवाए गए और ऐसी योजना की गई कि एक आर राजपुरुष उन पर वैठकर देख सकें, दूसरी ओर उचिप स्थान