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________________ ३६४ जैन महाभारत' मित्रता का जोड़ जिस प्रकार जुड़ सकता है, यह बात अभी खोल कर नहीं बता सकता । " "ओह ब्राह्मण ! अधिक बकवास मत कर। सीधी तरह से चला जा वरना धक्के देकर बाहर निकलवा दूंगा ।" द्रुपद ने चीख कर कहा । अव द्रोण से न रहा गया- "आज तुम सिंहासन पर बैठ कर मेरा अपमान कर सकते हो, पर यदि मुझ में तनिक सा भी पुरुषार्थ तथा विद्या बल है तो मैं तुझे अपने शिष्यों के द्वारा हाथ बंधवा कर मंगवालू गा । तू मेरे पैरों में पड़ कर अपने अपराध के लिए पश्चाताप करेगा और गिड़गिड़ा कर क्षमा की भीख मांगेगा । यदि मैं ऐसा न कर पाया तो मेरा नाम भी द्रोण नहीं । यह द्रोण की प्रतिज्ञा है जो भूली नहीं जायेगी" इतना कह कर द्रोण लौटने को तैयार हो गए तभी द्र पद ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया "इस मूर्ख ब्राह्मण को धक्के मार कर बाहर निकाल दो ।" द्रोण ने रुक कर कहा “मुझे बल पूर्वक बाहर निकालने की आव श्यकता नहीं है । मैं स्वयं ही जा रहा हूँ । झूठे लोगों के साथ वार्तालाप करना या उनके यहाँ ठहरना मैं अपना अपमान समझता हूं" इतना कह कर वे तेजी से बाहर चले आये । द्र पद ने उत्तर में कहा तो यह था कि "जा, जा, तू हमारा क्या बिगाड़ सकता है ?" पर द्रोण की प्रतिज्ञा को सुन कर वह कॉप उठा था, वह मन में सोचने लगा कि दोरा बड़ा विद्वान है क्या पता क्या मुसीबत लाकर खड़ी कर दे। मैंने यह क्या किया ? बड़ा अनर्थ हो गया ।" ॐ द्रोण चले आये । पर अब उनके सामने एक और चिन्ता आ खड़ी हुई। पहले तो केवल उदर पूर्ति के साधन की खोज थी अब अपमान का बदला लेने की भी चिन्ता सवार हो गई । रास्ते भर । मग्न चले आये । जीवन यापन और अपमान का बदला लेने समस्या मे उनका मस्तिष्क उलझा रहा । घर पहुचे तो पत्नी के ५. वाणों से परेशान हो गये । बस यही कहते बना "कृपी | तुम → ठीक कहती थीं । मेरा विचार गलत था।" फिर उन्होंने सारा वृत्तान्त 1
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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