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अमोहला परिच्छेद*
गुरु द्रोणाचार्य द्रोणाचार्य भारद्वाज के पुत्र थे । उनके पिता के नाम पर भारद्वाज यश प्रचलित हुआ द्रोण के युवावस्था में प्रवेश करते ही उनके पिता ने उन्हें विद्या अध्ययन के लिए गगा ट पर अग्निवेष ऋषि के पास भेज दिया था। जिन दिनों वे विद्याध्ययन कर रहे थे, उनके साथ राजकुमार द पद भी अग्निवेप ऋपि के आश्रम में ही शिक्षार्थी के रुप में थे। एक ही गुरु के श्राधीन शिक्षा ग्रहण करते करते राजकुमार द्रपद और द्रोण में घनिष्ट मित्रता हो गई मानो राज तेज और ब्रह्म तेज का समन्वय हो गया हो । दोनों में अपने अपने तेज की वृद्धि होनी रही, पर माथ साथ घनिष्ट मित्रों के रूप में रहते रहते अन्तःकरण एक समान हो गया। तीव्र बुद्धि दोनों के पास थी ही लगन भी थी, 'पोर परिश्रम के कारण दोनों विद्याओं में पारगत हो गए, परन्तु द्रोण का कौशल असाधारण था । वर्षों तक साथ साथ रहने के पश्चात वे एक दूसरे के इतने निकट आ गए थे कि जब विद्या प्राप्ति के उपरान्त अपने अपने घर लौटने लगे, तो विदाई के समय दोनों के ही नेत्र पलछला पाये।
द्रोण ने 'प्रवरुद्ध कठ से कहा---"वन्धु । आज तक मुझे कभी यह ध्यान भी नहीं पाया कि हम दो, जो दो शरीर और एक प्राण हो गुरु है, एक दिन एक दूसरे से विलग हो जायेगे। आज तुममे विदा साते हुए मेरा हदय फटा सा जाता है। मैं एफ निधन ब्राहाण का पुत्र
और तुम एक राजकुमार । परनु तुम्हारे व्यवहार ने कभी मुझे यह अनुभव ही न होने दिया कि मुझ में और तुम में भूमि और पाराश पा सतर है । इन दो सगे भालाधा से भी अधिक प्रेम के साथ रहे। तुम से अलग होकर मैं क्विना दुखी होगा पन वह नहीं सस्ता।