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विरोध का अकुर
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विद्या को जो तुम ने मुझे गुरु समन कर प्राप्त की है जीवहत्या के लिए प्रयोग न करो। कभी किसी निरपराधी को इससे आहत न करो । यह विद्या तो देशत्रती में रहते हुए धर्म की रक्षा, न्याय की रक्षा और अन्याय के नाश के लिये प्रयोग की जानी चाहिए। तुम आज गुरुदक्षिणा के इस अवसर पर मेरे इस उपदेश को हृदयंगम करो और मुझे गुरुदक्षिणा में कुछ ऐसी ही वस्तु दो जिससे कि मैं निश्चित होकर समझ सकू' कि यह पवित्र विद्या तुम शिकार के लिये प्रयोग नहीं करोगे । सुशिष्य वही है जो गुरु की इच्छा की पूर्ति के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दे ।”
हाथ
द्रोणाचार्य का उपदेश सुनकर एकलव्य बहुत प्रभावित हुआ । उस ने जोड़ कर प्रार्थना की " हे गुरुवर | आप जो चाहे मांग लें मैं वही आप के चरणों में अर्पित कर दूंगा कि एकलव्य एक शुभ विचारों के महान् विद्वान का सुशिष्य है । आप दक्षिणा निमित्त कोई भी वस्तु पसन्द कर लें । चाहे प्राण भी मॉग ले मैं वहीं दूंगा और मुझे जीव हत्या के लिए प्रायश्चित करायें ।"
" वत्स । गुरु दक्षिणा, दक्षिणा है, यह कोई भीख तो नहीं है जो हम स्वयं तुम से मांगे । जो चाहो दो । भक्ति व श्रद्धा पूर्वक दी हुई राख भी हमारे लिए मूल्यवान् है । पर श्रद्धालु सुशिष्य अपने गुरु को सोच समझ कर ही दक्षिणा देते हैं । एक प्रकार से इस में भी शिष्य की बुद्धि परीक्षा होती है ।" द्रोणाचार्य ने कहा ।
एकलव्य ने गुरुदेव की बात सुनकर सोचना आरम्भ किया कि क्या दू' जिस से गुरुदेव सन्तुष्ट हो ? कुछ ऐसी वस्तु दी जाय जिस से गुरुदेव को यह भी विश्वास हो जाय कि उनके नाम पर प्राप्त की गई विद्या का प्रयोग अव कभी भी जीव हत्या के लिए नहीं होगा, साथ ही मेरे किए का प्रायश्चित भी हो जाय। मैं भील युवक हूं उतना धन नहीं दे सकता जितना राजकुमार देते हैं, फिर वह कौन सी वस्तु है