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जैन महाभारत
विद्या को भी कलकित कर दिया। कुमार । तुम यह मत समझना कि मैं तुम्हें भील समझकर ऐसा कह रहा हूँ। बल्कि बात यह है कि तुम्हारी कला ने जितना स्थान मेरे हृदय मे बनाया है उतना ही तुम्हारे द्वारा इस कला के सहयोग से की गई जीवहत्या ने मुझे यह कठोर शब्द कहने पर विवश किया। काश । तुम मुझे अपना गुरु न मानते । लोग क्या सोचेंगे, जब वे सुनेगे कि एकलव्य जीव हत्यारा, द्रोणाचार्य का शिष्य है जो मांसभक्षण को पाप नहीं समझता है।"
"गुरुदेव मुझ से बड़ा पापी भला विश्व मे और कौन होगा ? एकलव्य दुखित होकर बोला, जिसके पुण्य प्रसाद से मुझे विद्या प्राप्त
हुई, मेरे कार्यो से उसी का हृदय दुखित हुआ। मैं इसका प्रायश्चित __ करने को तैयार हूं, गुरुदेव | आप प्रायश्चित करवाइये।" । ___"प्रायश्चित, तो मैं तभी करवाऊं जब तुम मेरे सच्चे अर्थो में में शिष्य बनो' द्रोणाचार्य ने कहा, तुम एक ओर तो अपने को मेरा शिष्य कहते हो, मुझे गुरु मानते हो, पर तुमने न तो गुरु भक्ति का ही प्रमाण दिया है, और न गुरु दक्षिणा ही दी है।"
"गुरुदेव ! गुरु दक्षिणा के लिए मैं प्रत्येक समय तैयार हूँ। आप मॉग लीजिए जो आपको मॉगना है। मेरे पास जो कुछ है मैं सभी
आपको दे सकता हूँ सर्वस्व आपके चरणो में रखने को तैयार हूं।" एकलव्य ने श्रद्धा एवं भक्ति पूर्ण शैली में कहा ।
"एकलव्य ! तुम मे इतने गुण प्रतीत होते हैं कि तुम जैसे होनहार शिष्य को पाकर मैं अपने को धन्य समझता, यदि वस एक ही दोष तुम में न होता, द्रोणाचार्य ने एकलव्य की प्रशसा करते हुए कहा । तुम मांसाहारी हो, निरपराधी जीवों पर धनुष विद्या का प्रयोग करते हो, बस एक यही कॉटे की तरह खटकती है। वरना तुम अपनी बुद्धि और लगन से विद्या मे इतने निपुण हो गये हो कि मेरा यह शिप्य अजन, जिस पर मैं गर्व कर सकता हूं, जिसे मैंने शस्त्र विद्या में अद्वितीय बनाने का वचन दिया था, जिसे शब्दवेवी बाण चलाने मे मै अद्वितीय समझा था, वह भी महान गुणवान, सुशील, कांतिवान, चरित्रवान और मेरा सुशिप्य स्वय को तुम से बहुत ही तुच्छ समझ बैठा है । काश ! तुम्हारे स्थान पर अर्जुन होता ? या तुम ही अर्जुन होते। खैर इन बातों को जाने दो मेरी हार्दिक कामना है कि तुम इस धनुष