________________
३३८
जैन महाभारत
है, मुझे तो आप भी दिखाई नहीं दे रहे। मुझे स्वयं अपना अस्तित्व मालूम नहीं।"
गुरुदेव के संकेत पर बाण छटा और वह काली मिर्च लेकर नीचे आ गिरा । गुरुदेव अजुन को शावाशी देकर अनुत्तीर्ण शिष्यो से इंसकर बोले___अपने लक्ष्य को छोड़कर जो दूसरी ओर दृष्टिपात करता है, वह सफल नहीं होता । मोक्ष लोलुप ससार को भी देखे तो मोक्ष कैसे पाये ? गुण, गुणी, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय और ध्यान, ध्येय, ध्याता, तू और मैं, यह और वह का अन्तद्वन्द्व जब आत्मा में मचा हो, तब आत्मा के परम लक्ष्य परमात्मा पद की प्राप्ति कहाँ ? तुम लोग मिर्च को न देखकर टहनी, पत्ते ही देख सके, अतः जो तुम्हारा लक्ष्य था, उसी को भेद सके, यदि अर्जुन की भॉति तुम्हारा लत्त्य काली मिर्च पर होता तो तुम भी उसे भेदने मे सफल होते।"
बात सुनकर सभी ने गर्दन झुका ली। दुर्योधन की भी गर्दन झुकी थी पर हृदय में अजुन के प्रति डाह भयकर रूप मे तूफान की भॉति उभर रहा था और कर्ण, वह भी दिल ही दिल में अर्जुन से जल रहा था।
गुरु दक्षिणा एक दिन अर्जुन बन मे जा निकले। हाथ में धनुष और कंधे पर वाण लटक रहे थे। उन्हे सिंह समान उन्नत कुत्ता दिखाई दिया, जिसका मुह बाणों से भरा हुआ था । यह अद्भुत दृश्य देखकर वे ठिठक गए । सोचने लगे "कौन है ऐसा धनुर्धारी जिसने इतनी सफलता से इस सिंह समान कुत्ते का मुह बाणों से भर दिया ?-यह काम तो बिना शब्द-बेध जाने नहीं हो सकता । कितनी चतुरता से याण चलाये गए हैं कि कुत्ते का मुह भरा हुआ है पर वह विना किसी पीड़ा के चला जा रहा है । वास्तव में बाण चलाने वाला कोई धनुष विद्या में अद्वितीय है, ऐसी बात तो न आज तक देखी और न सुनी ही।..." अद्वितीय शब्द का मस्तिष्क में उभरना था कि उन्हें गुरुदेव द्रोणाचार्य का वह वाक्य याद आ गया कि "मैं तुम्हे विश्व में अद्वितीच धुरन्धर धनुर्धारी बना दूंगा।" और उसी समय उन्हे वह बात