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जैन महाभारत
तो उधर पुष्प रस पान करते हुए मधुकर अपने मधुर गुजार से मनो का मोह रहे थे । वसत के ऐसे ही सुहावने समय में महाप्रतापी सुमुख नरेश की सवारी भी सैर के लिए निकल पड़ी।
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महाराजा की इस अनेक ठाठ-बाटी से सुसज्जित देवेन्द्रोपम सवारी को देखने के लिए चारो ओर से अपार नर-नारियों के झुण्ड एकत्रित होने लगे । ज्योज्यो सवारी धीर-धीरे आगे बढ़ने लगी त्यो त्यो दर्शनार्थी जनता के अपार समुद्र का प्रवाह भी उत्तरोत्तर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र की वेला की भांति उमडता हुआ बढ़ने लगा । चारो ओर से जय जयकार की ध्वनियो से पृथ्वी और आकाश गूज उठे, सुन्दरियों के नेत्र चातक वातायनों में से महाराज की रूप-चन्द्रिका का पानकर अघाते ही न थे, कहीं दवागनोपम कुल कामिनियॉ अपने २ प्रासादों की अट्टालिकाओं मे बैठीं अपने प्रिय महाराज पर पुष्प वर्षा कर रही थीं तो कहीं वन मार्गों मे अवस्थित नृप - दर्शनोत्सकसुन्दरियो के समूह अनजाने मे ही सविभ्रम कटाक्षपात कर रहे थे ।
अनेक राजाओं, राजकुमारों, राजपरिवारो, सामन्त, सचिव व सेनापतियों के साथ सुमुख की सवारी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी कि सहसा उनकी दृष्टि युवतीवृन्द के मध्य में बैठी हुई एक अनुपम सुन्दरी की ओर चली गई । सस्कारवशात् दोनों की आंखें चार हुई और सहसा एक दूसरे पर अनुरक्त हो गये । लाख प्रयत्न करने पर भी दोनो की दृष्टियां एक दूसरे से हटती ही न थी । महाराजा का हाथी मन्दमदमाती गति से ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता, वह सुन्दरी भी अन्य अनेक कुल कामनियो के साथ आगे बढकर महाराज की रूप छटा का पान करने लगती । उधर महाराज भी इस परम रूपवती के सौदय को देखकर सहसा अपनी सुधबुध खो बैठे और सहावस्थित मंत्री - श्रमात्यवर्ग तथा महिषियों की कुछ परवाह न कर उनकी आँखे उस भीड़-भाड़ मे उसी परम रूपवती को ढूढने लग गई । किन्तु सवारी के लौटने पर ज्यों ही महाराज ने अपने अनुजीवी, परिजन और स्वजनों के साथ राजप्रासादों में पदार्पण किया तो सभी पुरजनों ने भी अपने-अपने घरों की राह ली अतः स्वभावतः उस सुन्दरी को भी सुमुख की आंखों से ओझल हो स्वस्थान की ओर प्रस्थान करना पड़ा ।
उस सुन्दरी के दर्शन-पथ से पृथक् होते ही सुमुख की अवस्था