________________
२८२
जैन महाभारत नाविक ने उस समय कोई उत्तर न दिया।
महाराज शान्तनु उसके मकान पर गए और स्वयं उसका विचार पूछा।
नाविक बोला "महाराज ! आपके साथ मुझे अपनी कन्या का विवाह करने में कुछ आपत्ति है।"
"वह क्या ?"
"सत्यवती को एक नाविक को कन्या समझ कर आप उसे महल में उचित आदर भी दे सकेगे, इसमे मुझे सन्देह है" नाविक बोला।
"तुम विश्वास रखो ! सत्यवती हमारी रानी बनने के पश्चात रानी ही समझी जायेगी । उसका ‘मान हमारा मान होगा" शान्तनु ने विश्वास दिलाया।
“पर महाराज | सत्यवती की सन्तान को तो आपके पुत्र गांगेय कुमार का दास ही बन कर रहना पड़ेगा" नाविक बोला।
तो क्या तुम यह चाहते हो कि सत्यवती से उत्पन्न हुए पुत्र को ही युवराज का पद मिले ?"
महाराज शान्तनु ने प्रश्न किया।
"जी हॉ, आप मुझे क्षमा करे । सत्यवती का इसी शर्त पर आप से विवाह सम्पन्न हो सकता है" नाविक ने उत्तर दिया।
"क्या सत्यवती और उसकी सन्तान के लिए इतनी ही बात पर्याप्त नहीं है कि वह और उसकी सन्तान नाव खेने का कार्य न करके राज महलों का सुख भोगें" महाराज शान्तनु की बात में एक व्यंग छिपा था। ___ "महाराज । दासता चाहे किसी की हो, दासता ही है। पक्षी को सोने के पिंजरे में रखिये या लकडी के में, पर है वह बन्दी ही और किसी ने कहा है:---
मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर ।
वह है खौफ़ व जिल्लत के हलवे से बेहतर ॥ नाविक की बात सुनकर महाराज शान्तनु को दुख हुआ वे बाले "तुम उन्हें दास कैसे कह सकते हो । राज्य परिवार का हर सदस्य ही राजा होता है, यह बात दूसरी है कि राज्य सिंहासन पर एक ही बैठता है । सत्यवंती के पुत्र भी तो गागेय कुमार के भाई ही होगे । उनकी दासता का तो प्रश्न ही नहीं उठता"