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जैन महाभारत
एकता, प्रेम, स्नेह, धर्म निष्ठा में वृद्धि और समृद्धि के रूप में प्रकट हो
रहा था ।
धीरे-धीरे गर्भ के दिन पूरे हो गए । श्रावण शुक्ला पंचमी का दिन व्यतीत हो गया और रजनी की अवनिका धीरे से वसुन्धरा पर आ पड़ी। पर इस पीड़ा में एक अनोखा ही माधुर्य था । सारा राजपरिवार नवागन्तुक के स्वागत के लिए फड़कता दिल लिए प्रतीक्षा में था । अर्ध रात्रि के समय, चित्रा नक्षत्र में महारानी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया | प्रकाश से पुष्पों की वर्षा आरम्भ हो गई । स्वर्ग से छप्पन दिशा कुमारी आई और मांगलीक गीतों की स्वरलहरी वातावरण में घोल दी । इन्द्र सुधर्मा निज परिवार सहित समुद्र विजय के महल में आये । उन्होने प्रभु के दर्शन किए और इन्द्र ने उन्हें उठा लिया, देवता उन पर चंवर ढोलने लगे । सुमेरगिरि पर लाकर उन्हे स्नान .. कराया गया और देवी, किन्नर वीरांगनाएँ और चौसठ महिलाओं ने भगवान् के चारों ओर नृत्य किया । कुछ ही देर मे सभी देवता अपनी अपनी रानियों के साथ प्रभु दर्शन को आ गए। एक विराट उत्सव मनाया गया। सभी ने नाच गाकर मंगल मनाया स्तुति की और एक विशाल महात्सव के बाद उन्हे फिर मां की गोद मे ले जाकर रख दिया गया ।
स्त्रियां मंगल गान करने लगीं, समुद्र विजय ने रत्नों के थाल भरभर कर वितरित करने आरम्भ कर दिये, चारों ओर हर्ष ठाठ मारने लगा । सारा नगर दुल्हन की भाति सज गया, नूपुरों की ध्वनि गूज उठी । राग, मस्त, गीत, मांगलीक भजन वातावरण में घुल गए । नगर के प्रत्येक नर नारी के मन में उत्साह और हर्ष था शिशु में १०० सुलक्षरण थे । स्वर्ग मे भी पृथ्वी पर जन्म लिए भगवान् की चर्चा हो रही थी । विद्वानों ने उन्हें अरिष्टनेमि का नाम दिया । समुद्र विजय और रानी भी बालक के दिव्य कान्तिवान मुख को देख देखकर तृप्त न होते । अन्य लोगों की तो बात ही क्या। जो देखता, वह एक टक देखता ही रह जाता ।
श्ररिष्टनेमि जी जिन का शरीर अलसी पुष्प के समान था, कालचक्र के साथ-साथ वृद्धि की ओर पग बढ़ाने लगे। एक दिन प्रभु उपवन में क्रीड़ा कर रहे थे । इन्द्र ने अवधि ज्ञान से पता लगाया कि
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