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जैन महाभारत है तो अवश्य होकर रहेगी उसे कोई टाल नहीं सकता, वे अपने वचन पर डटे रहे । देवकी को भी उन्होंने इसी प्रकार के वचनों से सान्त्वना दिलाते हुए अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ बने रहने के लिए उत्साहित कर लिया। कृष्ण-बलदेव का पूर्वभव
इसी भरतक्षेत्र मे हस्तिनापुर नामक एक अत्यन्त रमणीक नगर था । वहां महामति नामक एक सेठ रहता था। उसके ललित नामक पुत्र था । इस पुत्र की माता इसे बहुत अधिक प्यार करती थी, ललित जब चार वर्ष का हो गया तो सेठ के एक दूसरा पुत्र और उत्पन्न हुआ इल दूसरे पुत्र की उत्पत्ति से पूर्व गर्भ के दिनो मे सेठानी बड़े भारी कष्ट का अनुभव करती रही । अतः इस गर्भ को अत्यधिक सतानदायक जानकर सेठानी ने अपना गर्भ गिराने के कई प्रयत्न किये किन्तु किसी मे सफल न हो सकी । यथा समय उसके सुन्दर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस पुत्र के उत्पन्न होते ही सेठानी अपने पहले द्वेष के कारण उसे अपने पास न रख सकी और वह उस बच्चे को दासी को सौपते हुए बोली कि 'जाओ इसे मार कर कहीं एकान्त मे फेक आओ।'
सेठानी की आज्ञा पाते ही दासी बच्चे को लेकर चल पड़ी ज्यों ही वह बच्चे को लिये हुए घर के द्वार से बाहर निकली कि मार्ग में उसे सेठ जी मिल गये दासी के हाथों में नवजात-शिशु को देख उन्होंने उसके बारे में पूछ-ताछ करनी आरम्भ कर दी अब तो दासी को सारा सच्चा-सच्चा वृतान्त बताना ही पड़ा । सारा समाचार सुन कर और उस सुन्दर बालक को टुकुर टुकुर अपनी ओर निहारते देख सेठ के पितृ-हृदय मे स्नेह की धारा फूट निकली उसने स्नेह सिक्त नेत्रों से दासी के हाथो से अपने पुत्र को ले लिया । सेठ ने अपने इस दूसरे पुत्र के लालन-पालन की व्यवस्था गुप्त रूप से कर दी। इस बालक का नाम गगदत्त रक्खा गया । यथा समय ललित को भी अपने जीवित रहने का वृतान्त ज्ञात हो गया । इस लिये वह भी गुप्त रूप से कभी कभी खेलने कूदने जाया करता था । एक दिन ललित ने अपने पिता से कहा पिता जी । क्या ही अच्छा हो कि इस वसन्तोत्सव के दिन गगदत्त भी हम लोगो के साथ ही भोजन करे।
यह सुनकर सेठ ने उत्तर दिया वेटा तुम्हारा विचार तो बहुत