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जैन महाभारत काट डाला और उसे रथ व कवचहीन कर मूर्छित कर दिया। शत्रुजय के पराजित हो जाने के पश्चात् मदोन्मत्त दन्तवक्र उनसे लोहा लेने के लिये आया, पर वह भी थोड़ी ही देर में अपना सा मुँह लेकर रह गया । अब तो युद्ध में शत्रुओं को काल के समान दिखाई देने वाला कालमुख कुमार के सामने आ डटा, पर वह भी थोड़ी ही देर मे रणभूमि से पीठ दिखाकर भागता दिखाई पड़ा। राजा शल्य वाण विद्या मे बड़ा निपुण था, उसे अपने शस्त्र सचालन कौशल का बडा अभिमान था । वह ललकारता हुआ वसुदेव के सामने आ डटा, किन्तु कुमार ने देखते ही देखते उसके छक्के छुड़ा दिये।
महाराज जरासन्ध ने इस प्रकार एक के बाद दूसरे बडे बडे पराक्रमी राजा महाराजाओ को वसुदेव से पराजित होते देखा तो अन्त में वसुदेव के बड़े भाई महाराजा समुद्र विजय से कहने लगे कि शस्त्रविद्या मे अपने उपमान आप ही हैं। हम लोगों ने उसे साधारण बाजा बजाने वाला समझ कर बड़ी भूल की। पहले तो ये सब राजा लोग बडी लम्बी चौडी डींग हाक रहे थे, पर इस वीर का सामना होते ही सबके छक्के छूट गये। अब तो आपके सिवाय ऐसा कोई महा पराक्रमी दिखाई नहीं देता। जो इसके दर्प का दलन कर सके। इसलिए उठिये और आप इसे दो दो हाथ दिखाकर हम सब लोगों की लाज रखिये। यह तो निश्चित ही है कि इसे पराजित कर देने पर राजकुमारी राणी आप ही का वरण करेगी।
तब समुद्रविजय ने बड़े शान्त, वीर, धीर, और गम्भीर स्वर में कहा
हे राजन् । न्याय की दृष्टि से रोहिणी तो उसी की हो चुकी जिसका उसने स्वेच्छापूर्वक वरण किया। मुझे पर स्त्री की कामना नहीं है। फिर भी या उपस्थित सब क्षत्रियों की नाक रखने के लिए, कहीं यह ऐसा न समझ बैठ कि उसके जैसा कोई वीर उत्पन्न नहीं हुआ । में इस उद्धन युवक से युद्धार्थ सन्नद्ध हूं।
अब ता महाराज समुद्र विजय शस्त्रास्त्र और कवच से सुसज्जित हो एक बडे बढ़ रथ पर जा बैठे। उनका सकेत पाते ही सारथी ने रथ आगे बढ़ा दिया। देखते ही देखते दोनो भाई आमने सामने आ डटे।
ज्याही वसुदेव कुमार ने अपने बड़े भाई समुद्र विजय को अपने