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वसुदेव के अद्भुत चातुर्य
२२५ और भोक्ता है । वह शरीर के आश्रय के कारण बन्धन में आता है और ज्ञान के द्वारा मुक्त हो जाता है। प्रकृति सत्व, रज, और तम इन तीन गुणों से युक्त होने के कारण त्रिगुणात्मिका है। वह अचेतन, सक्रिय और पुरुष की उपकारक है।
वसुदेव ने पूछा-भदन्त यह चिन्तन कौन करता है ? मुनिराज ने उत्तर दिया प्रकृति की विकृति स्वरूप यह मन ही सब कुछ करता है।
इस पर वसुदेव ने शका प्रगट करते हुए निवेदन किया कि भगवन् आपके ध्यान में किसी प्रकार की बाधा न हो तो मुझे इस सम्बन्ध में कुछ और बताने की कृपा कर कृतार्थ कीजिये । क्योंकि मेरे हृदय में इस विषय को अधिकाधिक जानने और सुनने की प्रबल जिज्ञासा जागृत हो गई है। ___इस पर परिव्राजक ने अपनी मन्द मुसकराहट से आलोकित मुखमडल की कान्ति से समस्त वातावरण को उत्फुल्ल एवं मन मोहक बनाते हुये। बड़े ही मधुर शब्दों से इस प्रकार समझाना प्रारम्भ किया___अचेतन मन पुरुष अथवा प्रकृति के आश्रय के बिना किसी प्रकार का कोई कार्य कर नहीं सकता। पुरुष मे विद्यमान् चेतना विस्मरण शील नहीं है । इसलिये वह मन को भावित करने या ज्ञानमय करने के लिये असमर्थ है। यदि चेतना मन को भावित करने वाली हो जावे, तो मन ही पुरुष बन जाये, पर वास्तव मे बात ऐसी नहीं है। अनादि काल से उत्पन्न और अपरिणामी पुरुष नित्य और अनादि हैं । वह जो इस प्रकार चिन्तन करता है । वह तो पूर्व भाव के परित्याग और उत्तरभाव अर्थात् बाद में होने वाले भाव के स्वीकार से भावान्तर को प्राप्त हुआ पुरुष अर्थात् आत्मा अपने आपको अलिप्त समझने लगता है। वसुदेव ने कहा यदि ऐसा हो तो तुम्हारे सिद्धान्त से विरोध हो जायेगा । मन के चिन्तन को आश्रय करके जिस रीति पर विचार किया है उस वस्तु को इस प्रकृति के सम्बन्ध में ही समझना चाहिये (क्योंकि तुम्हारे मत के अनुसार मन प्रकृति का विकार है । अचेतन और अनादि पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध में अथवा दूसरे के सम्बन्ध में चिन्तन