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________________ २१४ जैन महाभारत अनेक कष्ट और विपत्तियों को झेलते हुए बारह वर्ष के पश्चात् एक दूसरे को मिलकर नल दमयन्ती तथा भीमरथ और पुष्पदन्ती की प्रसन्नता का पारावार न रहा । वे हर्ष विभोर हो एक दूसरे को प्रेमाश्रओं से प्राप्लावित करने लगे, समस्त राजपरिवार इस प्रसन्नता से नाच उठा, जव महाराज दधिपर्ण को नल के प्रकट होने का समाचार ज्ञात हुआ तो उन्होने बड़ी नम्रता से नल को कहा कि मैं तो आपका सेवक होने के भी योग्य नहीं हूँ। फिर भी मुझसे आपको अपने यहाँ सेवक बनाकर रखने की अनजाने मे जो धृष्टता हुई उसे क्षमा कीजिए। तब महाराज नल ने उन्हें बड़े प्रेम भरे शब्दो में कहा कि राजन् मै तो स्वेच्छा पूर्वक आपका सेवक बनकर रहा था, आपने तो मेरे प्रति बडा ही सुन्दर व्यवहार किया। इसलिए आपको किसी प्रकार का अनुताप नहीं प्रत्युत हर्प ही होना चाहिये।। नल के प्रकट होने का समाचार पाते ही महाराज ऋतुपर्ण व उनकी रानी चन्द्रयशा और तापसपुर का स्वामी सार्थवाह श्री शेखर भी कुन्डनपुर आ पहुंचे । उन लोगो ने मिलकर महाराज नल का बड़ी धूमधाम से राज्याभिषेक कर दिया। अभिषेक के पश्चात् सब राजाओं ने निश्चय किया कि कुबेर को पराजित कर नल को उनका पैतृक राज्य वापस दिलाना चाहिए । वस फिर क्या था, देखते ही देखते बड़ी भारी सेना अयोध्या के निकट जा पहुँची, वहाँ पहुच कर महाराज नल ने कुबेर को सदेश भिजवाया कि यद्यपि मै इस समय युद्ध की तैयारी करके पाया है किन्तु तुमने मेरा राज्य जूए द्वारा प्राप्त किया था। इसीलिए मै छ त के द्वारा भी उसे वापस लेना अनुचित नहीं समझता, तुम द्य न या रण दोनो में से किसी एक का निमन्त्रण स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार कर सकते हो। इम सन्देश को पाकर कुवेर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि में अव भी नल को जूए में हरा दृगा। किन्तु अब तो समय बदल चुका था, नल के दुःख के दिन बीत गये थे। अब भला कुबेर की क्या मामये थी कि वह उन्हें जीत लेता, देखते ही देखते कुछ दावों मे वह सारा राज्य पाट हार गया। पर नल तो परम दयालु और सज्जन थे उन्होंने ता तब भी उसके साथ सज्जनता का ही व्यवहार किया, और रमे यथापूर्व अपना युवराज बना लिया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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