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जैन महाभारत
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'पाकी नहीं है । सम्भव हो वह महाराज नल ही हो। इसलिए उनका वास्तविक पता लगाने के विचार से कुशल नामक एक ब्राह्मण भेजा गया । कुशल ने जब जाकर उस कुबड़े कुरुप याचक को देखा तो वह बड़ा निराश हुआ । पर फिर भी वह अपने सन्देह निवारण के लिए उस रसोइये के सामने यह श्लोक पढ़ने लगा ।
"निर्घृणानां निस्त्रयाणां नि.सत्वाना धूर्व हो नल एवैकः पत्नी तत्याज य सुप्तामेका किनी मुग्धां विश्वस्ता व्यजतः उत्सेहाते कथं पादौ नैषधेरल्प मेधसः ॥२॥
दुरात्मनाम् । सतीम् ||१|| प्रियाम् ।
अर्थात् निर्दय, निर्लज्ज और निर्बल तथा दुरात्मा पुरुषो मे नल 'ही सबसे बढ़कर है जिसने अपनी सती साध्वी पत्नी को भी जंगल में अकेली छोड़ दिया । ऐसी अवस्था में उसे छोड़ते हुए उस निर्दय मूर्ख नल के पॉव कैसे आगे बढ़ सके होंगे ।'
विप्रराज के मुख से बार बार यह श्लोक सुन कर कुब्ज के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी । कारण पूछने पर उसने बताया कि नल की निर्दयता का वृत्तान्त सुनकर मेरी आँखों में से आँसू बह रहे हैं । कुशल का और कुब्ज का इस प्रकार आपस मे परिचय बढ़ गया, कुब्ज ने वे सब रत्नाभूषण ब्राह्मणराज को भेंट दे दिये जो उन्हे महाराज दधिप ने दिये थे ।
कुब्ज से वे सब रत्न पाकर चित्रराज कुण्डिनपुर आ पहुचे । उन्होंने दमयन्ती और भीमरथ से सारा वृत्तान्त कह सुनाया, अब तो उन्हे और भी निश्चय हो गया कि हो न हो वह नल ही है। किसी कर्म विशेष के कारण उनका शरीर विकृत हो गया है, इसलिए उसे यहाँ बुलाया जाना चाहिए ।
तब भीमरथ ने कहा कि बेटी मैने नल की वास्तविकता का पता लगाने का एक उपाय सोचा है कि मैं दधिप के पास तुम्हारे दुबारा स्वयवर की झूठी खबर भिजवा दू और स्वयंवर की तिथि इतनी निकट लिखू' कि वायु के समान तीव्रगामी रथ के सिवा वह यहाँ पहुच ही न सके । नल अश्व विद्या के ज्ञाता है और वे घोड़ों को वायु वेग से चला सकते हैं, यदि वह कुब्ज नल ही होगा तो उन्हे निर्दिष्ट समय से भी पहले यहाॅ पहुंचा देगा ।