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जैन महाभारत
से किसी भी स्थान पर रह सकती हो, परन्तु मैं तो कहीं भी रहना नहीं चाहता।"
यह लिख कर नल पहले तो नाना प्रकार के संकल्पो विकल्पो मे पडे रहे । फिर अन्त में अपने हृदय को कठोर बना, अपनी प्राणप्रिया को एकाकिनी छोड़ वहां से चलते बने । प्रात.काल उठते ही दमयन्ती ने जब उन्हे कहीं न देखा, तो बहुत घबराई और फूट फूट कर रोती हुई उन्हे इधर उधर ढूढ़ने लगी। उसकी आँखों के आगे अधेरा छा गया। पर ज्यों ही अचानक उसकी दृष्टि उन दोनों श्लोकों पर पड़ी तो उसे बहुत धेर्य बधा, वह सोचने लगो कि पतिदेव सकुशल है और वे मुझे भूले नहीं हैं यही बड़े आनन्द की बात है। अब तो मुझे अपने पतिदेव के
आदेशानुसार अपने मायके चले जाना चाहिए । यह सोच वह वट वृक्ष के पास वाले मार्ग से चल पडी, मार्ग मे चलते चलते उसे दहाड़ते हुए सिंह, फुकारते हुए विषधर नाग आदि अनेक हिसक प्राणी दिखाई दिये । पर वे सब उसके सतीत्व के तेज के सामने भयभीत होकर भाग निकलते, किसी को भी उसे रचक भी कष्ट पहुँचाने का साहस न होता चलते चलते दिन बीत गये, दमयन्ती के वस्त्र जर जर और मलिन हो गये, वर्षा, आतप, वायु, और तूफान आदि कष्टों के कारण उसकी देह यष्टी भी कृश और मलिन हो गई । वह उदास और निराश भाव से चली जा रही थी।
मार्ग मे चलते चलते देवात् उसे एक साथ मिल गया। उस सार्थवाहक ने मिलनी के समान दुर्दशाग्रस्त दमयन्ती को देख पूछा कि देवी तुम कौन हो, कहाँ से आई हो, और कहाँ जा रही हो ? दमयन्ती ने अपना सारा वृतान्त सक्षेप में कह सुनाया, अब तो सार्थवाहक की दमयन्ती के प्रति बड़ी श्रद्धा बढ़ गई। उसने बड़े आदर सम्मान के साथ उसके निवास भोजन आदि की व्यवस्था कर दी, इतने में वहाँ एक दस्यु दल आ पहुंचा । उसने सार्थवाहक को लूटना चाहा, किन्तु दमयन्ती के तेज के प्रभाव से वे डाकू अपने आप भाग निकले। अब दमयन्ती ने और अधिक सार्थवाहक के साथ रहना उचित न समझा। क्योंकि उसके कारण उन लोगों को सेवा शुश्रपा आदि का कष्ट करना पड़ता था । और वह कहीं भी भार भूत बनकर रहना उचित नहीं समझती थी। अतः रात्रि में ही चुपचाप वहा से निकल पड़ी। मार्ग में