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जैन महाभारत
ने महाराज को दो दिव्य फल भेट किये । वे उन अदृष्टपूर्व और अनास्वादित पूर्व फलों को देखकर विस्मित हुये । महाराज अमोघरेतस ने उन तापसों से पूछा कि उन्हे वे फल कहां से उपलब्ध हुए हैं ?
राजा की जिज्ञासा को शांत करने के लिये कोशिक और तण बिन्दु ने हरिवश की उत्पत्ति से लेकर कल्पवृक्ष ले आने तक की कथा संक्षप में कह सुनाई । इस उत्सव के अवसर पर अन्यान्य सैकड़ों कलाकारों के साथ कामपताका ने भी अपने अपूर्व कला कौशल का अत्यन्त आकर्षक ढंग से प्रदर्शन किया । अनेक प्रकार के नृत्य दिखाने के पश्चात् उसने छुरी नृत्य का प्रदर्शन किया। इस नत्य मे वह छुरियों की तीव्र धाराओं पर बहुत देर तक नाचती रही । इस अद्भुत नृत्य को देखकर सभी दर्शक मंत्र मुग्ध रह गये। चारों ओर कामपताका की कला की प्रशंसा के शब्द सुनाई देने लगे । दर्शक वृद में उपस्थित राज कुमार चारुचन्द्र तो कामपताका के अपूर्व रूप लावण्य को देख अपने आपको खो बैठा । उधर तापस कुमार कौशिक का भी मन अपने वश में न रहा । तापस कुमार और राजकुमार दोनों ही कामपताका को अपनाने का प्रयत्न करने लगे। पर कहाँ तो राजा और कहाँ एक साधारण तपस्वी।
एक ही वस्तु को लेकर राजा और रंक के पारस्परिक विवाद में रंक को पराजित होना पड़ा । कामपताका को चारुचन्द्र ने अपने अधिकार में कर लिया । उधर कौशिक को इसका कुछ पता न था इसलिए उसने कामपताका को प्राप्त करने के उद्देश्य से महाराज को अपने हृदय की बात कह सुनाई। इस पर राजा ने अपनी विवशता प्रकट करते हुए उत्तर दिया कि "तापसकुमार । युवराज चारुचन्द्र ने कामपताका को अपने पास रख लिया है। अतः मै उससे आपको दिलाने में सर्वथा समर्थ हूँ।" यह सुन तापस कौशिक ने कुपित हो चारुचन्द्र को शाप दिया “कि जब वह कामपताका के साथ रमण करेगा तो उसकी मृत्यु हो जायगी।"
तापसकुमार के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण राज्य का भार अपने पुत्र के कंधे पर डाल महाराज अमोघरेतस जगल में चले गये और वहाँ तपस्वियों के साथ रहने लगे । उनकी गनी चारुमति उस समय गर्भवती थी परन्तु उन्हे उसका पता न था। उनके तपोवन में चले जाने