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जैन महाभारत निशचिन्तता पूर्वक सुना सकू।' वसुदेव के अशोक वृक्ष के नीचे बैठ जाने पर उसने अपनी कथा इस प्रकार सुनानी आरम्भ की
विद्युद्दष्ट्र विद्याधर का वृतान्तः"हे देव । इस भरतक्षेत्र (भारत वर्ष) को दो विभागों में विभक्त कर देने वाला वैतादय नामक पर्वत अपने दोनो पावों को पूर्व और पश्चिम मे लवण समुद्र तक फैलाकर खड़ा हुआ है। उसके उत्तर और दक्षिण की श्रेणियों में विद्याधरों की बस्तियाँ हैं। ___उन दोनों श्रेणियों पर विद्याधरों के बल के महात्म्य को मथन करने वाला अत्यन्त पराक्रमी शासक विद्य दंष्ट्र का शासन था। उसने शौर्य आदि गुणों से सब विद्याधरों को अपने वश में कर रखा था। उसकी राजधानी गगनवल्लभपुर नामक नगरी थी।
एक बार महाराजः विद्य दंष्ट्र अपनी प्रियतमाओ के साथ पश्चिम विदेह में स्थिति भद्रशाल नामक अत्यन्त रमणीय वन में क्रीड़ार्थ गये। वहां से वे क्रीड़ा कर अपनी राजधानी को लौट रहे थे कि मार्ग में वितशोकापुरी नगर का भीमदर्शन नामक श्मशान पड़ा ।' उस श्मशान में अनायास ही उनकी दृष्टि एक प्रतिमा धारी श्रमण पर गई जो वहा सात दिन के प्रतिमा योग से युक्त थे । उस मुनि का नाम संजयन्त था। वे अपर, विदेह की पश्चिम दिशा में स्थित सलिलावतो विजया की वितशोकापुरी नगरी के महाराज संयत (वैजयन्त) के बड़े पुत्र थे। , इन्होंने अपने पिता तथा छोटे भाई वनजयन्त के साथ भगवान् स्वयभू के पास दीक्षा ग्रहण कर ली थी। दोक्षा लेने क अनन्तरै इन तीनो मुनिराजों ने आगमो का अभ्यास किया पश्चात् कर्ममल का दूर करने के हेतु कठोर तपस्या का अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया। इस तप के प्रभाव से श्रमण सयत का घातिक कर्ममल दूर हो गया। उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई । इस केवल ज्ञान के उत्सव के अवसर पर चारों निकायों के देव अपनी देवियो सहित अरिहत सयत के दर्शन करने के लिए आये। उनमे नागराज धरणेन्द्र भी शामिल थे। धरणेन्द्र का महान् वैभव देख मुनिराज वैजयन्त ने आगामी भव मे धरणेन्द्र बन ने का निदान बांध लिया था। तदनुसार कालधर्म को प्राप्त हो वे
णेन्द्र बन गये।