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जैन महाभारत
जाकर वहां से नीचे ढकेल दिया। किन्तु भाग्य जिसका रक्षक है उसे भला कोई कैसे मार सकता है। वसुदेव का तो अभी आयुष्य कर्म बहुत शेष था। इसलिए वसुदेव की भसरा,ज्योंहि पर्वत से फेंकी गई कि किसी ने बीच ही मे उसे उठा लिया । अब तो वसुदेव सोचने लगे कि जिस प्रकार चारूदत्त की भसरा को भरूण्ड पक्षी उड़ाकर ले गए थे सम्भवतः मेरी भसरा को भी उसी प्रकार यह कोई भरूण्ड पक्षी उड़ाये लिए जा रहा है। हो सकता है मुझे भी उन्हीं के समान किसी चारण श्रमण का सौभाग्य प्राप्त हो जाय । ___वसुदेव अभी इसी प्रकार सोच ही रहे थे कि उनको बकरें की खाल में से निकाल कर उनके पूर्व परिचित कर युगलों ने उन्हें प्रणाम किया और वेगवती फूट फूट कर रोती हुई उनके पैरों में गिर पड़ी। वह कह रही थी कि "हे महासत्व । हे मेरी जैसी अनेक रमणियों के प्राणाधार ! मैंने आपको कैसे भयकर घोर संकट की अवस्था मे पुनः प्राप्त किया है । आपने न जाने पिछले जन्म में ऐसे कौन से कर्म बाँधे थे जिनके परिणाम स्वरूप आपको ऐसा कष्ट देखना पड़ा। तब वसुदेवने उसे सान्त्वना देते हुए कहा कि प्रिये ! 'स्वयं कृत कमे यदात्मना परा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।' अतः चिंता मत करो होनहार होकर रहती है । भवितव्यता को कोई टाल नहीं सकता । मैंने भी पिछले भव्व में किसी को पीडा पहुँचाई होगी इसीलिए तो ऐसा दुःख पाया है। __ इस प्रकार धैर्य बन्धवाने के पश्चात् उन्होंने वेगवती से पूछा कि तुमने मुझे यहाँ आकर कैसे बचाया और अब तक तुम्हारे दिन मेरे वियोग में किस प्रकार बीते यह तो बता दो। ___इस पर वेगवती ने अपना आत्म-वृत इस प्रकार बताना प्रारम्भ किया हे प्राणनाथ | महापुरनगर में मैं और आप दोनों राजमहल में सो रहे थे। थोड़ी देर पश्चात् अचानक जब मेरी नींद खुली तो क्या देखती हूँ कि आप शैया पर नहीं हैं । तब मैं व्याकुल हो हो कर रोने लगी और दास दासियों से पूछने लगी कि मेरे प्राणनाथ कहा चले गए है । मुझे सदेह होने लगाकि मेरा भाई मानसवेग ही मेरे प्राणनाथ को हर कर ले गया है। तब रोते २ मैंने महाराज के पास सूचना पहुँचाई कि आये पत्र यहां नहीं है। यह सुनते ही सारे राज महलों में खलबली मच गई। सब लोग आपको इधर उधर ढूढ़ने लगे पर जब ऑप कहीं नहीं मिले