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- जैन महाभारत अन्य किसी का कोई विचार नहीं है और भूल से जिसका नाम इस समय निकल गया है वह तो इस लोक में है ही नहीं। इसलिये इस 'जन पर तुम्हारा रोष व्यर्थ है। ___ थोडी ही देर पश्चात् 'मुस्कराती हुई मदनवेगा वसुदेव के पास ,
आ पहुँची। उसे प्रेसन्न देखकर मन ही मन हर्षित हो वसुदेव उसे कुछ कहना ही चाहते थे कि इतने मे बाहर से बड़ा भयकर कोलाहल सुनाई दिया। "वह देखो महल जल रहा, महल जल रहा है। लोगों की इस प्रकार की चिल्लाहट उनके कानों में पड़ने लगी। पल भर में ही प्रचंड पवन से प्रेरित आकाश तक छूने वाली भयकर आग की लपटों ने सारे महल को घेर लिया। इसी समय मदनवेगा वसुदेव को आकाश में ले उड़ी। इतने में ही मानस वेग आकाश में उड़ता हुआ दिखाई दिया। वह झपट कर वसुदेव को पकड़ लेना चाहता था कि उसे देखते ही मदनवेगा ने वसुदेव को नीचे पटक दिया। गिरते गिरते वसुदेव एक घास के ढेर पर आ पहुंचे। इसलिए उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। वसुदेव ने सोचा कि वे विद्याधर श्रेणी में हैं। किन्तु इतने में उन्हे महाराज जरासन्ध के कार्यों का वर्णन करते हुए कुछ व्यक्ति दिखाई दिये। इसलिए उन्होंने उससे पूछा कि "इस देश का क्या नाम है और यह नगर कौनसा है तथा यहाँ का राजा कौन है।" ____उसने उत्तर दिया कि यह मगध देश है। यह राजग्रही नगरी है
और यहा के महाराज परम पराक्रमी जरासन्ध है । यह सुनकर वसुदेव। तालाब मे हाथ मुह धो न गर की शोभा देखते हुए एक द्य ती गृह में जा पहुचे । वहाँ पर नगर के बड़े बड़े सम्पन्न व्यक्ति बैठे हुए जुआ खेल रहे थे। उन खेलने वालों ने वसुदेव को देखते ही कहा कि यदि आपकी इक्छा हो तो आप भी खेलिये । इस पर वसुदेव ने भी उनके साथ खेलना आरम्भ कर दिया और देखते ही देखते अनन्त राशि उनसे जीत ली । जीते हुए उन सब रत्नादिकों को एकत्र कर वसुदेव ने मध्यस्थ को कहा कि यहा के मब दीन हीन दरिद्रों को बुलाकर एकत्रित (इकट्टा) कर लो । क्योंकि यह सब द्रव्य में गरीबों को बॉट १ वस्तुत यह मदनवेगा नही थी बल्कि एक अन्य विद्याधरी उसका रूप धारण कर मारने के लिए आई थी। और उसी ने ही यह अग्निप्रकाप किया था।
यह सचमुच २ मानसवेग नही था जो कि वसुदेव का दुश्मन था प्रत्युत वह वेगवती थी। वसुदेव की रक्षा निमित्त वह उसका रूप लेकर आई थी।