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जैन महाभारत
कोई सहायक नहीं है । क्या मैं अकेला इसे सिद्ध नहीं कर सकता ? इन्द्रशर्मा ने वसुदेव को उत्साहित करते हुए कहा आप अकेले ही करिये, मैं आपकी सहायता के लिए प्रतिक्षण यहाँ उपस्थित हूँ । यदि विशेष आवश्यकता हुई। तो मेरी यह स्त्री बनमाला भी हमारी सहायता कर सकती है ।
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इन्द्रशर्मा के ये वचन सुन वसुदेव यथाविधि उस विद्या की साधना में लीन हो गए । रात्री के समय जब वे आदेशानुसार जप-तप में लीन हो गये तब इन्द्रशर्मा उन्हें एक पालकी मे बैठाकर वहाँ से भाग चला । वसुदेव को पहले ही समझा दिया गया था कि साधना के समय भ्रम हो जाता है इसलिए वे समझे कि वास्तव मे मुझे भ्रम हो रहा है। इस प्रकार इन्द्रशर्मा रात भर वसुदेव को गिरितट से बहुत दूर उड़ाकर ले गया । प्रातःकाल सूर्योदय होने पर वसुदेव विशेष रूप से सजग हुए तब वे ससके कि उन्हें कपटी विद्याधर पालकी में बैठाकर कह उड़ाये लिये जा रहा है ।
दीर्घकाल तक उस पालकी मे बैठे रहना वसुदेव के लिए असह्य हो उठा । वे शीघ्र उस पालकी से कूद कर एक ओर भागे । इन्द्रशर्मा ने उनका पीछा किया । जहा वसुदेव जाते वहीं वह जाता । दिन भर यह दौड़ धूप होती रही । न तो वसुदेव ने हिम्मत हारी और न इन्द्रशर्मा ने ही पीछा छोड़ा । अन्ततः सन्ध्या के समय येन-केन प्रकोरण वसुदेव धोखा देकर तृणशोषक नामक एक गॉव मे घुस गये और वहा के देवकुल में जाकर चुपचाप सो गये ।
दुर्दिन में निराश्रयी को कहीं आश्रय नहीं मिलता । विपत्तियां चोली दामन का साथ किये फिरती हैं। उस देवकुल में भी रात्रि में एक राक्षस ने आकर वसुदेव पर आक्रमण किया । वसुदेव को उससे युद्ध करना पढा । राक्षस अत्यन्त बलवान था अत वसुदेव को कई बार हार खानी पडी, परन्तु अन्त में अवसर पाकर वसुदेव ने राक्षस के हाथ पैर बांध डाले और जिस भांति धोबी वस्त्र को शिला पर पटकता है उसी भांति जमीन पर पटक कर मार डाला ।
प्रातःकाल जब लोगों ने देखा कि वह राक्षस जो नित्य उन्हें कष्ट देता था, देवकुल के पास मरा पड़ा है तो उनके आनन्द का पारावार न रहा। उन्होंने वसुदेव को एक रथ में बैठाकर समस्त गांव में घुमाया