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________________ मात्तग सुन्दरी नीलशा १४७ NAVRAN उसने इसका प्रत्युत्तर दिया कि 'दिवाकर नामक एक विद्याधर ने अपनी पुत्री का विवाह नारद के साथ किया था। उन्हीं के वश का 'सुरदेव नामक एक ब्राह्मण इस समय इस गाव का स्वामी है। उसकी क्षत्रिया नाम की पत्नी से एक कन्या उत्पन्न हुई थी जिस का नाम सोमश्री है । सोमश्री शास्त्रों की अच्छी ज्ञाता मानी जाती है। सोमश्री के विवाह के सम्बन्ध में कराल नामक एक ज्ञानी ने बताया कि शास्त्रार्थ में जो सोमश्री को परास्त कर देगा वही उसे वरेगा। यह सुनकर वसुदेव ने उसको प्राप्त करने की अपनी घोषणा कर दी। वसुदेव को यह भी मालूम हुआ कि सोमश्री को प्राप्त करने के लिए कई युवक लालायित है ओर वे ब्रह्मदत्त नामक एक उपाध्याय से निरन्तर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं। अतः वे ब्रह्मदत्त के घर जा पहुँचे और निवेदन किया मैं गौतम गोत्रिय स्कन्दिल नामक ब्राह्मण हूँ और आपके पास अध्ययन के लिए आया हू । अध्यापक ने सहर्ष उन्हें अपनी अनुमति दे दी। बस फिर क्या था । बहुत अल्प समय में उन्होंने समस्त शिष्यों से बाजी मार ली और अन्त में सोमश्री को पराजित कर उससे विवाह कर लिया। __वसुदेव कुमार अपनी इस नवीन ससुराल में बहुत समय तक आनन्द करते रहे। अकस्मात् एक दिवस उनकी भेंट एक उद्यान में इन्द्रशमा नामक ऐन्द्रजालिक से हो गई। उसने उनको इन्द्रजाल के अनेक अद्भुत चमत्कार करके दिखाये। यह देखकर वसुदेव की भी उस विद्या का सीखने की इच्छा हुई। उन्होंने इन्द्रशर्मा से यह विद्या सिखाने के लिए अनुरोध किया। ___ इन्द्रशर्मा ने कहा कि यह विद्या सीखने योग्य है और अल्प परिश्रम से सीखी जा सकती हैं । सन्ध्या के समय इसकी साधना प्रारम्भ की जाय तो प्रातःकाल सूर्योदय के पहले ही यह विद्या सिद्ध हो जाती है। परन्तु साधना काल में इसमें अनेक विघ्न-बाधाए उपस्थित होती हैं। कभी कोई डराता है, कभी कोई मारता है, कभी हसाता है और कभी ऐसा मालूम होता है मानों हम किसी वाहन पर बैठकर कहीं चले जा रहे हैं । अतः इस विद्या की साधना के समय में एक सहायक की आवश्यकता रहती है। वसुदेव ने कहा कि यहाँ विदेश में मेरे पास १ विश्वदेव । देवदेव
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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