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________________ १२६ जैन महाभारत साथ रह । मेरी सेवा मे रहते हुए तुझे बिना किसी कष्ट से धन प्राप्त हो जायगा । अत अब मै उसकी सेवा सुश्रूषा मे रहने लगा। एक बार उस साधु ने एक भट्टी सुलगाकर मुझे कहा कि 'देख, फिर उसने एक लोहे के गोले पर कुछ रस लगाकर उस गोले को जलते हुए अगारों मे डाल दिया । अंगारो क बुझ जाने पर हमने देखा कि लाह का गोला दमकते हुए स्वर्ण का गोला बन गया है । तब उसने कहा देखा तुमने । मेरे मुख से निकला हा यह तो बडी आश्चर्य जनक घटना है । इस पर उसने कहा कि 'यद्यपि मेरे पास स्वर्ण नहीं है तो भी मै बडा भारी सौवर्णिक हूँ। तुम्हे देखकर मेरा तुम पर पुत्र के समान प्रेम हो गया है। तूने अर्थ प्राप्ति के लिये अनेक कष्ट सहे है इसलिए मै तेरे लिए जाऊगा और शत् सहस्रवेवी रस ले आऊगा। फिर तू भी कृत्य-कृत्य होकर अपने घर चले जाना । यह तो मेरे पास पड़ा हुआ थोड़ा सा रस था। इस पर लोभ में फंसे हुए मैने कहा तात | आप जैसा उचित समझे वैसा कीजिये । तब हम दानो एक अधकारमयी रात्रि में बस्ती से बाहर निकल हिंसक जन्तुओं से परिपूर्ण एक भयानक जगल मे जा पहुँचे । हम भील कोल आदि वनचरों के भय के कारण दिन में तो छिपे रहते और रात्रि में अपनी यात्रा को निकल पडते । इस प्रकार चलते चलते हम दोनों एक पर्वत की गुफा के पास जा पहुंचे । उस गुफा मे प्रविष्ट होने के पश्चात् थोडी दूर चलने पर हमने देखा कि वहां पर एक घास से ढका हुआ एक कुऑ है। उस कुए के पास ठहर कर साधु ने मुझे कहा थोड़ी देर विश्राम कर लो। इस प्रकार कुछ सुस्ता लेने के बाद वह चमड़े के वस्त्र पहनकर कुएं में उतरने लगा, तब मैंने पूछा 'यह आप क्या कर रहे हैं।' । ___उसने उत्तर दिया । 'पुत्र घास से ढके हुए इस कुए के नीचे वज्र कुण्ड है। उसमे से रस झरता रहता है। मैं रस्सी के सहारे नीचे उतरता हूँ। वहां जाकर मैं तेरे लिये रस की तुम्बी भर लाऊगा।', यह सुनकर मैंने कहा इस खटली में बैठाकर आप मुझे नीचे उतार दीजिये, आप मत उतरिये । वब उसने कहा 'नहीं बेटा तुम्हे डर लगेगा। मैंने आग्रह किया,
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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