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चारुदत्त की आत्म कथा
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निकल आया तो उसने दूर से पुकारते हुए कहा कि अरे "इधर आओ-इधर आओ।" यह देखो कैसा आश्चर्य है।
मैंने अपने स्थान पर खड़े-खडे पूछा "अरे क्या कुछ बताओगे भी या यों ही चिल्लाते रहोगे।"
"यह बात बताने की नहीं है । स्वय आंखों से देखन की है। इस लिये जल्दी आओ और यह देखो क्या है !''
गौमख बोला अरे कोई आश्चये-वाश्चये नहीं, वह यह बताना चाहता है कि इस पत्थर की शिला में वृक्ष कैसे उग आया है। वृक्ष की ऐसी कोमल जडों ने इस कठोर पत्थर को कैसे भेद डाला। इसी प्रकार उसने कई और वातें बता कर कहा कि ऐसा ही कुछ आश्चर्य वतला रहा होगा। किन्तु उसने कहा कि 'नहीं यह सब कुछ नहीं यह तो आश्चर्यो का भी परम आश्चर्य है ।' तव हम उत्सुकता पूर्वक आगे बढे और पूछने लगे कि क्या आश्चर्य बता रहे हो ? तब उसने उस कोमल बालूका में अकित किसी युवती का पद चिह्न बताया। इस पर गोमुख ने कहा अरे इसमे क्या आश्चर्य की बात है। तव उसने दो पद चिह्न और बताये । इस पर गौमुख ने तर्क किया कि "अरे ऐसे पद चिह्न पर आश्चर्य होने लगे तो हमारे पांवों के चिह्न भी आश्चर्य माने जायेगे।" इन पद चिह्नों मे भला कौन से आश्चर्य की बात है। तब मरुभूति ने समझाया कि "हमारे पद चिह्न तो अनुक्रम से बढते है कहीं बीच मे विचिह्न नहीं होते हैं किन्तु ये पद चिन्ह तो एक दम यहीं प्रगट हुए है।
पहले इनका कोई निशान नहीं है । न तो इनका काई कुछ आने का पता है और न कहीं आगे जाने का । यह सुनकर हरिसिंह ने समझाया कि “इसमें अधिक क्या सोचने की आवश्यकता है। क्योंकि कोई व्यक्ति इस तट पर उगे हुए वृक्षों की पक्ति के ऊपर कूदता हुआ एक शाखा से दूसरी शाखा पर लटकता हुआ चला आ रहा होगा। पर यहां आकर, उसको दूसरे वृक्ष का आधार नहीं मिला । इसलिये वह नीचे उतर आया और फिर उस पर चढ गया ।" तब गोमुख ने विचार कर कहा "यह बात नहीं है । यदि वह वृक्ष के ऊपर से उतरा हो तो उसके हाथों और पैरो के दबाव तथा आघात से वृक्षों के सूखे या पक्के पत्र, पुष्प, फल आदि अवश्य झड़कर इस तट पर गिर जाते किन्तु यहाँ कोई ऐसा चिन्ह नहीं है। अब हरिसिंहने पूछा कि "ये पगलिये अर्थात् यह पद