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जैन महाभारत wammmmmmmmm साथियो के साथ अगमन्दिर उद्यान की ओर निकल गया । सुन्दर उपवन, नदी, स्रोता तथा मेघ घटाओ की शोभा देखते-देखते तथा अनेक प्रकार के फल, पुष्पो से सुशोभित वृक्ष-लताओ पर चहचहाते हुए। पक्षियो के कलरवों को सुनते न जाने कल में बहुत आगे निकल गया। मुझे अपने घर बार और परिवार का कुछ भी ध्यान न रहा । मेरे साथ मेरे पांचो साथी भी उसी प्रकार वन की शोभा को निहारते हुए चले जा रहे थे । धीरे-धीरे हम चादी के समान चमकती हुई निर्मल बारीक वालिकाओ वाली १रत्नमालिनी नामक नदी के तट पर जा पहुचे। हम लोग यहां नाना प्रकार की क्रीडाओ में मग्न हो गये अभी तक हमारे साथ और भी अनुचर थे। हम ने उन्हे यह कह कर विदा कर दिया कि तुम लोग घर जाकर पिता जी को सन्देश दे दो कि वे चिन्ता न करे। हम लोग स्नान आदि से निवृत्त हो शीघ्र ही घर पहुँच जायेगे।
सेवकों के चले जाने के बाद हम ने स्नान करने की तैयारी की। कुछ देर नदी के तट की शोभा देख मरुभूति नदी में उतरता हुआ बोला | चलो आओ जल्दी स्नान कर लो। अभी तक तुम लोग किनारो पर खड़े हो, शीघ्र स्नान क्यों नहीं कर लेते । गौमुख ने कहाअभी नहीं थोड़ी देर ठहर कर स्नान करंगे क्योकि स्वास्थ्य विज्ञानवेत्ता का कथन है कि कहीं से चल कर आने के पश्चात् तत्काल पानी में प्रविष्ट नहीं होना चाहिए। क्योंकि पादतल से आरम्भ होने वाली दो सिराये शरीर में ऊपर की ओर चलती हुई कठाय तक पहुचती है। यहा से वे दोनो नेत्रो की ओर जाती हैं। इन शिराओ की रक्षा के लिए एक दम तपे और गर्म शरीर वाले व्यक्ति को पानी में नहीं घुसना चाहिये । इस प्रकार गर्म शरीर से कोई पानी में प्रविष्ट हो जाय तो प्रकृति के विरुद्ध होने के कारण मनुष्य को धु धलापन, बहरापन या अधत्व
आदि रोगों का भय रहता है। थोड़ी देर बाद हम सब लोग नदी मे उतर कर जल बिहार करने लगे। इस प्रकार कमल पुष्पो को तोड़ कर हम एक दूसरे पर फेंकते, नाना प्रकार की अठखेलिया करते नदी की धारा के साथ बहुत दूर जा निकले । एक बहते हुए पद्य पुष्प के पीछे तैरते-तैरते मरुभूति बहुत दूर चला गया। वहां जब वह किनारे पर
१ सिन्धु तट पर । त्रि० रजत वालुका । वसु० हि०