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जैन महाभारत
wrmmmmmm rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrammer स्वर रहता है तथा षड्ग का लघन नहीं होता। नदयती मे गाधार मध्यम और पंचम जो अंश होते है वे ही न्यास माने जाते हैं।
षड्ग में कोई मे कोई अश लघनीय नहीं होता, आंधी में सचार नहीं होता। यहा मदस्वर में ऋपभ लघित होता है । आंधी जाति में तारस्वर में ग्रह और न्यास होता है। ऋषभ और पचम अंश. होते हैं और धैवत और निषाद न्यास हैं ओर पंचम उपन्यास होता है। विशेष रूप से गांधार का सर्वत्र गमन होता है तथा कोशिको षड्गा में ऋषभ के बिना सब का सचार होता है। यहा पर ऋषभ के बिना सब अंश उपन्यास माने गये हैं। गांधार सप्तम हो जाता है और वहा निषाद के होने पर पचम न्यास माना जाता है। कभी-कभी यहा ऋषभ भी उपन्यास हो जाता है और धैवत षाडव के बिना दो ऋषभ वाला षाड्व होता है। यहां पर औडवित भी होता है । बलवान स्वर के स्थान में पंचम हो जाता है । यहा ऋषभ की दुर्बलता और लंघन हो जाता है। षड्ग के साथ मध्यम का सचार होता है और जाति स्वर और संचार यथायोग्य समझ लेना चाहिए।
विजय श्री वसुदेव के हाथ अब वसुदेव कुमार ने गन्धर्व सेना की घोषा नामक वीणा को हाथ में लेकर गान्धार ग्राम की मूर्छना से एक चित्त तीन स्थान ओर क्रिया की शुद्धि पूर्वक ताल लय ग्रह के अनुसार वह विष्णु गीतिका गा सुनाई। गीत के प्रारम्भ होते ही सभा मे उपस्थित लोग कहने लगे कि कहाँ तो यह कठोर परिश्रम साध्य सगीत कहां इसका सुकुमार शरीर । किन्तु संगीत के समाप्त होने पर सब के मुख मडलों पर प्रसन्नता खेलने लगी कि यह ब्राह्मण कुमार निश्चित ही आज इस गान प्रतियोगिता में गधर्व सेना को हरा देगा, विष्णु गीतिका के समाप्त हो जाने पर परीक्षा का नया कार्यक्रम आरम्स हुआ।
अब गधर्व सेना और वसुदेव को साथ-साथ गा बजाकर अपनी कला का प्रदर्शन करना था, परीक्षा में यह प्रतियोगिता का अंश ही सब से कठिन कार्य था, जब गन्धर्व सेना की सुकोमल तथा अत्यन्त अभ्यस्त अंगुलियां वीणा की तालों पर अविराम गति से थिरकती हुई नाचने लगती तो किसी की क्या शक्ति थी कि कोई उसके वीणा वादन के साथ-साथ कभी द्रत और कभी विलम्बित स्वर गा सके ।