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मानते है मैं नही मानता है। व्रत के मानने वालो को ही वेद मे व्रात्य कहा गया गया और आज उन्हे जैन कहा जाता है । अत यह इतिहास सिद्ध है कि जैनधर्म की विचारधारा भारत के जन जीवन मे प्राचीन काल से परिव्याप्त रही है । प्रत्येक धर्मका प्रभाव अपने देश, राष्ट्र और समाज पर पडे विना नहीं रह सकता । और फिर जो धर्म राज्य धर्म बनने का गौरव ले चुका हो तो फिर कहने की क्या बात है । यथा राजा तथा प्रजा कहावत तो हमारे देश मे हजारो वर्षों से चलती रही है । अतः जातीय जीवन का प्रतिविम्ब जब हमे महाभारत और रामायण मे देखने को मिलेगा उस समय जैनधर्म के अनुसार सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव था उसका विश्लेषण जैनधर्मानुयायी लेखक द्वारा लिखी हुई कृति से अच्छा आका जा सकता है यह तो निर्विवाद ही है ।
उपनिषद् जैनागम, तथा त्रिपिटिक सामान्य जनता की दृष्टि से गहन और दुरूह साहित्य में से हैं । अतः लोकभोग्य साहित्य तो धार्मिक दार्शनिक और सामाजिक न होकर प्रायः कथात्मक ही रहता है। महाभारत, रामायण और पुराण कथनात्मक साहित्य है अत वह जनता का साहित्य है । प्रत्येक धर्म ने अपने आदर्शो और सिद्धान्तो का प्रतिपादन कथानको के आधार पर इन महाकाव्यो मे सम्पादित किया है। यही इनकी लोकप्रियता का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वैदिक धर्म, जैनधर्म और बौद्धधर्म इन तीनो ने ही इन महाकाव्यो 'और कथानको का अपने अपने रूप मे निर्माण किया है। यह सत्य है कि महाभारत जातीय जोवन का महाकाव्य है, उसमे धर्म के नाते भेद नही डाला जा सकता, किन्तु निर्माताओ और लेखको की मनोभूमिका ही उनके साहित्य मे अवतरित होती है।
मै तो मानता हू कि सभव है कि प्राचीनकाल मे यह भेद बुद्धि इतनी न पनपी हो और इन्हे समग्रजाति का काव्यात्मक इतिहास मान लिया गया हो, क्योकि आज से सैकड़ो वर्ष पहले लिखे गये ससार के विचि