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गन्धव दत्ता परिणय उन्हें परम आनन्द की प्राप्ति होती है । गवर्व विद्या से विशेष सम्बन्ध होने के कारण इसे गाधर्व भी कहते है । गाधव की उत्पत्ति में वीणा या श्रीर गान तीन कारण हैं और वे भी स्वर, ताल और पद की दृष्टि से विविध है । स्वर के मुख्य दो भेद हैं-१ वैण २ शारीर । उसमें भी चरण स्वर के अनिवृति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलकार, मृछना और धातु नावारण आदि अनेक भेद हैं। तथा जाति वर्ण-वर ग्राम स्थान गाधारण क्रिया अलकार और विधिश्वास शारीर स्वरों के भेद हैं।
कृदन, तद्धित, समास, मधि, स्वर, विभक्ति, सुवन्त, तिगन्त, और उपसर्ग आदि पद विधि बतलाई हैं तथा ताल, सम्बन्धविधि, आवाय निप्काम, विक्षेप, प्रवेशन, शम्या ताल, परावर्त सन्निपात, वस्तुक मत्र अपिदार्यग लय, गति, प्रकरण, यति, गीति, मार्गावयव और पाणियुक्त पादावयव में वाईस प्रकार की वर्णन की हैं। इस प्रकार उस समय इन तीनो भेद-प्रभेद ओर उनके लक्षणों का वर्णन कर के कुमार ने गंधर्व विद्या को बहुत बडे विस्तार से बतलाया। स्वर दूसरी तरह पड्ज, 'पभ, गाधार, मध्यम, पचम, धैवत और निपाद इन भेटों से सात प्रकार के भी होते हैं और वे सातो ही १ वादी २ सवाढी ३ विवादी पोर 'अनुवादी इन भदों से चार प्रकार के हैं । मध्यम ग्राम मे पचम पोर पभ पर का सवाट होता है । जब कि पड्ज स्वर मे चार, पापम में तीन, गाधार दो, मध्यम में चार, पचम में और वैवत में दो, 'पौर निपाद मं तीन श्रुति होती हैं । तर वह पड्ज ग्राम कहलाता है।
जब मध्यम स्वर में चार, गॉधार मे दो, ऋपभ मे तीन, पग मे पार निपाद में दा, धैवत में तीन पोर पचम में तीन श्रुति होती है। तय पर मध्यम प्राग कहलाता है । इस प्रकार दोनी ग्रामो (पड्गग्राम मध्यम प्राम) में प्रत्येक की वाईस २ अतिया होती हैं । एव इन दोनों प्रामां गं (प्रत्येक में सात) कुल चौदह मृर्छना होती हैं, जिसमें से पगग्राम फी सातो गृहेनानी के क्रमश. मगी, रजनी, उत्तरायता, शुद्ध पगा, मनरीकृता, 'अषकांता 'पौर अभिरुद्धता ये मात नाम हैं. 1 पोर मध्यमग्राम की मृर्द्धनाओं के सौवीरी. हरिणस्या कल्लोलपदना, (कलोपनता) शुस् मध्यमा, मागवी, योखी और ऋत्यका ये सात नाम है । पइज (ग) स्थर में पड्गमाम सभूत, उत्तरमा मृाना दी है। प्रापभ रपर में अभिरुग्णता, गावार में प्रश्वकांता, मध्यम