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वसुदेव का गृहत्याग
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कुछ लोग रोते बिलखते और एक दूसरे को कोसते हुए कहते कि इसमें उनका अपराध भी क्या था। उनके रूप और गुणों पर कोई मुग्ध हो पागल सा बन उन्हीं का पुजारी बन जाता तो उसमें उनका भी क्या दाप । और फिर उनका प्रेम भी तो सर्वथा पवित्र था, कहीं कुछ भी पाप की श्राशका नहीं थी, फिर भी हमने अपने मन के पाप को उनमे देखा, और व्यर्थ मे हम उनके प्राणों के ग्राहक बन गये । इस प्रकार वे लोग अनुतापाग्नि में दग्ध हो रहे थे।
यह समाचार देखते ही देखते जगल की आग की भॉति सारे देश में फैल गया । अव तो ग्राम-ग्राम, नगर नगर व घर घर मे आठो पहर उन्हीं की चर्चा होती रहती, महाराज समुद्रविजय का तो खाना-पीना पहिनना, आदि सभी कुछ छुट गया । वे वसुदेव कुमार के विरह मे विक्षिप्त से रहने लगे। इसी समय एक अवधी ज्ञानी मुनिराज ने कृपा कर समुद्रविजय को दर्शन दिये, और उन्होंने महाराज को बताया कि वसुदेव इस समय जीवित है और समय आने पर अपार वैभव के साथ प्रकट होकर तुम सब को आनन्दित करेगा।' यह सुन महाराज को कुछ धैर्य हुआ, और धीरे धीरे यह बात ज्यों ज्यों दूसरे लोगो के कानों तक पड़ने लगी त्यो त्यों उन्हें भी कुछ सान्त्वना मिलने लगी।
वसुदेव का विजयखेट नगर में पहुंचना उधर वसुदेव कुमार ने अपने सेवक को नगर की ओर विदा करते ही तत्काल एक निराश्रित मृतक को उठाकर चिता पर रख उसे आग लगा दी। और अपने आभूषण आदि भी उसी में डाल दिय जिससे कि लोगों को पूरा पूरा विश्वास हो जाय, कि वसुदेव कुमार चिता में जल मरे।
इसके पश्चात वे वेप बदलकर वहाँ से पश्चिम की ओर चल पड़े। मार्ग में चलते चलते उन्होंने देखा कि कोई सुन्दरी रथ मे बैठी हुई अपने ससुराल से अपने माय के जा रही है। उसने जब उन्हें पैदल चलते देखा तो अपने माथ की बुढ़िया से बोली कि 'यह अत्यन्त सुकुमार वापरण पुत्र चलते चलते थक गया सा दीखता है । इसलिए इसे अपने रब में बैठालो आज वह अपने घर विश्राम कर तत्पश्चात् यथेच्छ स्थान की ओर प्रस्थान कर जायगा।'