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फिर दो-तीन मिनट उसे सूचना दे कि वह शिथिल हो रहा है। फिर यह सूचना दे कि श्वास शिथिल हो रहा है। शरीर और श्वास दोनो शिथिल हो जाए तब यह सूचना दे कि मन शिथिल हो रहा है। जव मन शिथिल हो रहा हो, उस समय या तो चितन को सर्वथा बन्द कर दे, वैसा न कर सके तो अर्हत्, सिद्ध आदि जो भी इष्ट हो, उस शब्द को याद कर उसके अर्थ पर मन को एकाग्र करे। जो ध्येय है उसे प्रत्यक्ष देखने का प्रयत्न करे।
ध्यान करने वाला पूर्व या उत्तर की ओर मुह करके बैठे। आखे या तो मुदी हुई हो या अधखुली। वे यदि खुली हो तो मानसिक कल्पना से उन्हे वही नासाग्र पर केन्द्रित किया जाए।
ध्यान-काल मे आसन कष्टदायी नही किन्तु सहज होना चाहिए। ध्यान के लिए सामान्यत पद्मासन, पर्यकासन, कायोत्सर्गासन आदि आसन सुझाये गए है। किन्तु ये ही आसन होने चाहिए, ऐसा आग्रह नही है। आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है-जिस आसन मे बैठने पर मन निश्चल हो, वही आसन करणीय है।
येन केन सुखासीना, विद्ध्युनिश्चल मनः । • तत्तदेव विधेय स्यात्, मुनिभिर्वन्धुरासनम् ॥ ज्ञानार्णव ।।
ध्यान तदात्मकता
ध्यान करने वाले को तदात्मक होने का अभ्यास डालना चाहिए अर्थात् जिसका ध्यान करे, उसके साथ एकात्मकता स्थापित करनी चाहिए। क्रिया के साथ भी तदात्मकता हो तो वह भी ध्यान हो जाता है। जो वोले उसमे मन का योग साथ रहे तो वह बोलना भी ध्यान है। जप, ' भावना या स्वाध्याय मे तन्मय होने पर एकाग्रता की मात्रा ध्यान के विन्दु तक पहुच जाती है। उसमे वाणी का व्यापार होने पर भी एकाग्रता की उपयुक्त मात्रा के कारण वह वाचिक ध्यान कहलता है। जो करे उसमे मन का योग साथ रहे तो वह करना भी ध्यान है। तन्मयता से जो किया जाता है वह सद्य. फलदायी होता है। ध्यान करने वाला ध्येय की सम्प्राप्ति के लिए अपने शरीर व मन को शून्य बना लेता है। ऐसा करने पर ध्येय और ध्याता मे एकात्मकता हो जाती है। इसी को
४६ / मनोनुशासनम्