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तीसरा प्रकरण
१. एकाग्रे मनःसन्निवेशन योगनिरोधो वा ध्यानम् ।।
१ आलम्बन पर मन को टिकाना अथवा योग (मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति) का निरोध करना ध्यान है।
ध्यान मन की दो अवस्थाएं है-गत्यात्मक और स्थित्यात्मक। गत्यात्मक अवस्था को मन और स्थित्यात्मक अवस्था को ध्यान कहा जाता है। ध्यान करते समय मन सकल्पो से भर जाता है। एक-एक कर पुरानी स्मृतिया उभरने लग जाती है। सहज प्रश्न होता है कि इसका क्या कारण है ? जव मन की प्रवृत्ति होती है तव उतनी चचलता नहीं होती जितनी उसको स्थिर करने का प्रयत्न करने पर होती है। हम गहराई मे जाए तो पाएगे कि चेतना चचल नहीं होती। मन चेतना का एक अश है। वह भला कैसे चंचल हो सकता है ? वह वृत्तियो के चाप से चचल होता है । वृत्तियो का जितना चाप होता है, उतना ही वह चचल होता है और वृत्तिया जितनी शान्त या क्षीण होती है, उतना ही वह स्थिर होता है। यही ध्यान होता है। तालाब का जल स्थिर पड़ा है। उसमे एक ढेला फेका और वह चंचल हो गया। यह चचलता स्वाभाविक नही, किन्तु बाह्य संपर्क से उत्पन्न है। ठीक इसी प्रकार मन की चचलता भी स्वाभाविक नहीं, किन्तु वृत्तियो के सम्पर्क से उत्पन्न होती है। मन की चचलता एक परिणाम है। वह हेतु नहीं है। उसका हेतु है-वृत्तियो का जागरण ।
वृत्तिया दो प्रकार की होती है-सत् और असत् । असत् से सत् की ओर जाना पहला चरण है और दूसरा चरण है असत् को क्षीण करना। असत् मे मन चचल रहता है, सत् मे शान्त और असत् को क्षीण करने ४० / मनोनुशासनम्