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है, पीछे उसकी स्मृति रह जाती है। चचलता का एक हेतु स्मृति है।
मनुष्य कल्पनाशील प्राणी है। वह मन ही मन भविष्य का स्वप्न सजोता रहता है। वे स्वप्न मन मे चचलता उत्पन्न करते है। चचलता का एक हेतु कल्पना है।
मनुष्य इन्द्रियो के माध्यम से बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क करता है। यह बाह्य जगत् शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शमय है। वह मम के अनुकूल और प्रतिकूल दोनो प्रकार का है। अनुकूल के प्रति आसक्ति और प्रतिकूल के प्रति द्वेप होता है। ये आसक्ति और द्वेष मन की चचलता के वर्तमान हेतु है।
इस प्रकार स्मृति, कल्पना तथा आसक्ति और द्वेष-ये चारो आन्तरिक वृत्तिया मन को चचल करती रहती है। मन की स्थिरता का अर्थ है स्मृति का निरोध, कल्पना का निरोध, आसक्ति का निरोध और द्वेष का निरोध। मन की स्थिरता का अभ्यास क्रम है-स्मृति की शुद्धि, कल्पना की शुद्धि, आसक्ति की शुद्धि और द्वेप की शुद्धि।
जव आसक्ति और द्वेप तीव्रतम होते है तब दृष्टि और चारित्र दोनो विकारग्रस्त हो जाते है। उस स्थिति मे मन का क्षोभ प्रबल हो जाता है।
प्रारम्भ मे मन को एक स्मृति की परम्परा मे लगाने का अभ्यास किया जाए। इससे मन की गति एक प्रवाह मे हो जाती है। ऊपर से ऊपर उभरने वाली स्मृतिया और कल्पनाए रुक जाती है। एक स्मृति की अविच्छिन्न धारा का अभ्यास हो जाने पर फिर कुम्भक का अभ्यास किया जाए। उसमे स्मृति और कल्पना का निरोध हो जाता है। ध्येय के साथ ताटात्म्य होने पर सहज ही कुम्भक हो जाता है।
अनासक्ति के लिए अनित्य और एकत्व भावना का अभ्यास किया जाता है। द्वैप-निवृत्ति के लिए आत्मौपम्य की भावना या प्रेम का विकास किया जाए। इस प्रकार समुचित साधनो के द्वारा मन की चचलता के कारण-भूत तत्त्वो का निरोध किया जा सकता है।
मूढ अवस्था मे आसक्ति और द्वेष बहुत प्रबल होते है। मूढ अवस्था का मन बाह्य जगत् और परिस्थिति का प्रतिबिम्ब लेता रहता है इसलिए वह एकाग्र या स्थिर होने की दिशा मे गति नही कर पाता।
मूढ अवस्था की भूमिका पार कर लेने पर व्यक्ति के मन मे भीतर
मनोनुशासनम् । ३१