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आस्रव का प्रतिपक्ष । आस्रव के द्वारा हम आत्म-स्वभाव की अनुभूति से दूर रहते हैं और सवर के द्वारा हम आत्म-स्वभाव की अनुभूति ये प्रवृत्त हो जाते है । जैसे ही हमे देह और आत्मा का भेदज्ञान होता है, वैसे ही हमारा मिथ्या दृष्टिकोण समाप्त हो जाता है। जैसे ही हमे आत्म-स्वभाव की अनुभूति होती है, हमारी आकाक्षाओ का स्रोत रुक जाता है । जैसे ही हम आत्म-उपलब्धि के प्रति जागरूक होते हैं, हमारा बाह्य जगत् के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। जैसे ही हम सहज शान्ति के अनुभव मे लीन होते है, हमारा मानसिक संताप विलीन हो जाता है । जैसे ही हम स्वानुभूति मे निष्पन्द होते है, हमारी प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है ।
मन, वाणी और कर्म का स्पन्दन होता है, तब हम बाह्य जगत् के सम्पर्क मे रहते है और जब ये निष्पन्द हो जाते है, तब हम अन्तर्जगत् या अपने स्वभाव मे चले जाते है । इसी प्रकार सताप, आकर्षण, आकांक्षा और मिथ्या दृष्टिकोण हमे बाह्य की ओर उन्मुख करते है । सम्यक् दृष्टिकोण, सहज तृप्ति, सहज शान्ति और सहज आनन्द हमे आत्मोन्मुखता की ओर ले जाते है । आत्म-विमुखता ही आस्रव है और आत्मोन्मुखता ही संवर है । साधना का अर्थ ही है - आत्मविमुखता से हटकर आत्मोन्मुख होना । यम ( महाव्रत ), नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि उसी की साधन-सामग्री है। ध्यान और समाधि संवर से भिन्न नही है । इसीलिए जैन योग मे सवर ध्यान योग का सर्वोपरि महत्त्व है |
२७. इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रियाणिआत्मनो लिंगम् ॥
२७. इन्द्रिय, मन और अतीन्द्रिय ज्ञान (योगी ज्ञान, प्रातिभ ज्ञान व प्रत्यक्ष ज्ञान) आत्मा को जानने के साधन है ।
साधना का प्रयोजन
अध्यात्म की साधना करने वाले व्यक्ति का मन स्वस्थ रहता है । मन स्वस्थ रहता है, इसका अर्थ है कि शरीर भी स्वस्थ रहता है । शरीर स्वस्थ रहता है, इसका अर्थ है कि इन्द्रियां निर्मल रहती हैं । बुद्धि भी
मनोनुशासनम् / २७