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के अभाव मे अर्जित सस्कार निर्वीर्य बन जाते है। गन्दा जल शोधक द्रव्यो के प्रयोग से स्वच्छ हो जाता है। इसी प्रकार तपोयोग के द्वारा वृत्तियो के टोप विलीन हो जाते है। इस शोधन की प्रक्रिया पर अग्रिम पृष्ठो मे प्रकाश डाला जाएगा।
४. आत्ममात्रापेक्षं अतीन्द्रियम् ॥ ५. चेतनावद् द्रव्यं आत्मा ॥ ६ ज्ञानदर्शन सहजानन्द सत्यवीर्याणि तत्स्वरूपम् ॥ ७ परमाणुसमुदयैस्तदावरणविकरणे॥ ८. तत्संसर्गाऽसंसर्गाभ्यां आत्मा द्विविधः ॥ ६ बद्धो मुक्तश्च ॥ १० स्वरूपोपलब्धिमुक्तिः॥
४ पौद्गलिक साधनो की अपेक्षा रखे विना केवल आत्मा के द्वारा
जो प्रत्यक्षज्ञान होता है, उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है। ५ जो द्रव्य चेतनावान होता है, उसे आत्मा कहा जाता है। ६ ज्ञान-दर्शन, सहज आनन्द, सत्य (पूर्ण वीतरागता) और वीर्य-यह
आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। ७ परमाणु स्कन्धो के द्वारा आत्मा का स्वरूप आवृत और विकृत
होता है। ८ स्वभाव की दृष्टि से सव आत्माए समान होती है, फिर भी
परमाणु समुदायो के योग और वियोग के कारण वे दो प्रकार
की होती है। ६ परमाणु-समुदायो के योग से युक्त आत्मा वद्ध और उनके योग
से वियुक्न आत्मा मुक्त कहलाती है। १० स्वरूप की उपलब्धि होती है, आवृत-स्वरूप अनावृत होता है,
वही मुक्ति है।
अतीन्द्रिय ज्ञान और आत्मा चेतना के तीन स्तर है-ऐन्द्रियिक, मानसिक और अतीन्द्रिय। चेतना का आवरण सघन होता है तव उसके ऐन्द्रियिक स्तर का विकास होता है।
८ / मनोनुशासनम्